Wednesday 10 October 2012

आदमी है कहां


आदमी है कहां

आदमी है कहां डाॅ. गिरराज शरण अग्रवाल के सद्यः प्रकाशित ग़ज़ल-संग्रह का शीर्षक भी है और अधुनातन मानव सभ्यता के भंवरजाल में उलझे, कस्बाई शहरों से लेकर महानगरों में काॅलोनीबद्ध निवासियों के समक्ष उठा हुआ यक्ष प्रश्न भी. अपने सामाजिक सरोकारों को तलाशते हुए किसी कवि की संवेदन शीलता अपने काव्य संग्रह के लिए ऐसा शीर्षक चुनेगी. यह संभावना, आशंका मौजूदा परिस्थितियों के कारण किसी विवशता, मजबूरी का रूप ले लेगी इसकी स्वीकारोक्ति ही हृदयविदारक है.
आदमी है कहां, का सीधा साधा अर्थ है हम हंै कहां? एक समूह या समाज के रूप में हम हैं क्या? इन प्रश्नों पर प्राथमिक प्रारंभिक चिंतन नहीं ही मन मस्तिष्क को बेचैन उद्धेलित कर देता है.
आदमी है कहां? कहते हुए, पूछते हुए, सोचते हुए आदमी की मानव की खोज की शायरी में उनका आशावादी दृष्टिकोण साहित्यिक सान्त्वना प्रदान करता प्रतीत होता है, किन्तु आश्वस्त नहीं करता क्योंकि-
इक सवाल ऐसा नगर में सबके अधरों पर रहा
आज का दिन कल के बीते दिन से क्या बेहतर रहा
एक ही आंगन में रहते हैं, मगर हैं अजनबी
अब न वैसे रिश्ते नाते, अब न वैसा घर रहा
दरअसल जो भी, आदमी या समाज जैसा भी है  हमारे सामने है, और डाॅ. गिरराज शरण अग्रवाल की ग़ज़लों में भी ठीक वैसा ही है. एक हद तक यह सही है, उचित है लेकिन यह यथास्थिति है, वर्तमान यथार्थ है किन्तु इसमें भावी मानव जीवन या सभ्यता के लिये आशावाद कहां है? यह केवल बात की तह तक पहुंचने की कोशिश है या आमजन को घुमा फिराकर प्रेरित करने का अभिनव प्रयास-
करता है गिला ताजा हवा क्यों नहीं आती
ये देख तेरे घर में झरोखा भी नहीं है
यहां तक आते आते बात कुछ कुछ समझने में आने लगती है और समझ जब इस शेर पर केन्द्रित होती है तो शंकाओं का निवारण किसी न किसी रूप में हो ही जाता है.
खुशबू की कोई हद है न सीमा न दायरा
खुशबू हवा के साथ जहां जा सकी गई
जो पल तुझे मिले हैं गनीमत समझ के जी
हैं जि़न्दगी का क्या ये अभी थी, अभी गई.

आशा की छांव में आदमी की खोज की शायरी की संतुष्टि यहां भी मिलती है. जब वह खुलकर कहते हैं
प्यार की सौगात बांटें आओ तुम भी मेरे साथ
लोग अब इक-दूसरे से अजनबी होने लगे
याकि काश यह बीमार दुनिया वह भी दिन देखे कि जब
उम्रभर के दुश्मनों में दोस्ती होने लगे
सूंघ ही लेंगे महक सारे ज़माने वाले
पहले फूलों की तरह आदमी महके तो सही
भाषा सरल सहज सम्पे्रष्य हिन्दी है लेकिन हिन्दी का अतिरेक कहीं कहीं शेर की रवानी और तासीर में रोड़े भी अटकाता है. जैसे-
दोस्त यह पतझड़ का मौसम सामयिक है, जाएगा
हर बसंती रूत का अब जा जाके लौट आना समझे.
या आंधियां भी छिपी हुई हैं यहां
नींड़ मजबूत शाख पर रखना
ऐसे इक्का दुक्का शब्द प्रयोगों को दरकिनार कर दें तो परंपराओं पर आस्था और वर्तमान के प्रति संतुष्टि का अहसास ही ऐसे आत्मविश्वास के रूप में झलकता है.
हमने पत्थर के भीतर से खोजी चमक
हमने ढूंढा तो हमसे उजाला हुआ
ऐसी ही चमकदार उजली पुख्ता ग़ज़लें इस संग्रह में हैं और पूरे संग्रह से गुजरने के बाद लगता है कि कवि का आशावादी दृष्टिकोण का दावा गलत नहीं है.
आदमी है कहां/डाॅ. गिरराज शरण अग्रवाल/प्र.सं. 2010/मूल्य150 रु/हिन्दी साहित्य निकेतन बिजनौर मप्र.

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