Wednesday 10 October 2012

कुछ न कुछ वैसा


कुछ न कुछ वैसा

दिनेश जिंदल हिन्दी गजल का महत्वपूर्ण नाम है .‘कुछ न कुछ वैसा’ उनका नवीनतम गजल संग्रह है जिसमें उनकी 72 ग़ज़लें संकलित है इसके पूर्व उनका गजल संग्रह चुप्पियाॅं शीर्षक से प्रकाशित हुआ था और उसकी गजलें भी चर्चा का विषय रही थीं. वे अपनी मेहनतों और कोशिशों के बाद भी गजल को खुदा की मेहरबानी या आमद का विषय समझते हैं यह संतोषदायी है. उनके पास गजल की कहन भी है और विषय वस्तु की विविधता भी. साथ ही समयानुकूल नवीनता भी जो इन दिनों कम ही देखने को मिलती हैं. देखें -
वहाॅं आकर के मैं चुपचाप वापिस लौट जाता हॅूं
जहाॅं आकर के अक्सर चीटियों के पर निकले हैं
उस आॅंगन में दीवारें उठ आई हैं
जिस आॅंगन में खेले सुबह शाम बहुत
तुम हुये सागर तो मैं भी एक बादल की तरह
मिट गया मिटकर नदी की धार को जिंदा किया
हिन्दी भाषी रचनाकार यह बात समझ कर भी समझना नहीं चाहते. कि ग़ज़ल लिखने यानि कहने से भी अधिक जीने का हुनर है. सच्ची और अच्छी ग़ज़लें वही कह पाता है जो ग़़ज़लों को जीने का हुनर जानता है. ग़ज़ल पर हिन्दी या उर्दू नाम न चस्पा किया जाये. लेकिन वह पढ़ने सुनने में ग़ज़ल जैसी लगे. यही उसकी सबसे बड़ी खूबी है. इस नज़रिये से दिनेश सिंदल बधाई के पात्र हैं. कहीं कहीं वर्तनी और बहर की त्रुटियां खटकती हैं. लेकिन यह ग़ज़लें ग़ज़ल साहित्य में नई बहार की सूचक हंैं जो विषम परिस्थितियों में नई उम्मीदें बनाये रखती हैं.
कुछ न कुछ वैसा/दिनेश सिंदल/प्र.सं. 2009/मू.150रु./शशि प्रकाशन बीकानेर राज.

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