Wednesday 10 October 2012

रोशनी की इबारत


रोशनी की इबारत
-डाॅ.महेन्द्र अग्रवाल

रोशनी की इबारत ज़रूरत से ज़्यादा संवेदनशील कवियत्री डाॅ.प्रभा दीक्षित की शताधिक ग़ज़लों का संग्रह है. हिन्दी, अंग्रजी, संस्कृत विषयों में स्नातकोŸार डाॅ.प्रभा दीक्षित को उर्दू से पगी विधा ग़ज़ल ने यदि आकर्षित किया तो यह कानपुर की आबो हवा का असर ही समझना होगा इन ग़ज़लों में कथ्य की दृष्टि से वह तमाम विषय समाविष्ट हैं जो आजकल लिखी जा रही ग़ज़लों में होते हैं याकि होना चाहिए. इन ग़ज़लों में उनकी वेदना, विद्वता, और व्यक्तित्व की दबंगी तीनों ही सिर चढ़कर बोलती हैं मसलन-
चंद गूंगों की मैं जुबां भी हूं
एक पत्नी हूं और मां भी हूं
  दर्द किसी का धैर्यवान था  रूपगर्विता  हार  गई
  आधी रात मिलन के तट पर तैर नदी के पार गई
    लड़कों की तरह रह नहीं पाती  हैं लड़कियां
    हर बात खुल के कह नहीं पाती हैं लड़कियां
   गै़र के धोखे में खु़द को क़त्ल कर देते हैं लोग
   ये गलतफहमी किसी दिन  साफ़ होनी  चाहिए.
इन ग़ज़लों में नज़र आने वाले मात्रादोष, छंद दोष, उनके हैं या प्रूफरीडिंग की त्रुटि के कारण कहना मुश्किल हैं क्योंकि उनसे ऐसी अपेक्षा नहीं है ग़ज़ल एक पेचीदा विधा है, जब तक कि उसे रूह के स्तर पर महसूस न किया जाए. कहा भी जाता है कि ग़ज़ल का हर शेर समझाया जा सकता है, उसकी व्याख्या की जा सकती है परन्तु वह समझने के लिये नहीं अपितु महसूस करने के लिये है. ग़ज़ल की गीतात्मक भाषा और अर्थ आदि तकनीकी तथ्यों पर गौर न करें तब भी इस संग्रह की पृष्ठभूमि में उनका मूल मकसद मानवता की सेवा रहा है, और इस कारण वह वंदनीय है...
रोशनी की इबारत/डाॅ.प्रभा दीक्षित/प्र.सं.2001/मू.150रू./युगप्रभा प्रकाशन कानपुर (उ.प्र.)

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