Wednesday 10 October 2012

वक़्त की तपिश का एहसास कराती ग़ज़लें


वक़्त की तपिश का एहसास कराती ग़ज़लें
डाॅ.महेन्द्र अग्रवाल

ग़ज़ल की अपनी एक अलग परम्परा भी है और अपनी अलग तहज़ीब भी, हिन्दी कवियों ने लाख कोशिशें की किन्तु सफलता आंशिक रूप से ही मिली. ईमानदारी से देखा और सोचा समझा जाये तो हिन्दी कविता में वही ग़ज़लकार चर्चित हो सके जिन्होंने ग़ज़ल को ही नहीं ग़ज़ल की तहज़ीब को भी जिया है. यहां एक सवाल उठाया जा सकता है,कि ऐसा आखिर क्यों है ? लेकिन सवाल यहां न प्रासंगिक है और न समीचीन. सवाल यह है,कि बिहार जैसी भयंकर भूमि में (ऐसा लोग कहते हैं) अनिरुद्ध सिन्हा अगर ग़ज़ल कहते हैं तो क्यों कहते हैं और कैसी कहते हैं ? यद्यपि हिन्दी में ग़ज़लें बेशुमार कही जा रही हैं और पहले जैसा समीक्षा के अभाव का रोना भी नहीं रहा फिर भी हिन्दी साहित्य में ग़ज़ल समीक्षा के कोई मानदण्ड स्थापित हुए हों ऐसा भी नहीं है, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल  ने जिस तरह से रामचरित मानस को आधार बना रखा था वैसी ही स्थिति हिन्दी ग़ज़ल समीक्षा में दुष्यंत कुमार त्यागी की है। उन्हें लांघने की किसी की कोशिश अभी तक सफ़ल नहीं हुई. (भले ही अदमगोंडवी को एक प्रतिबद्ध विचार धारा वालों ने कितना ही क्यों न उछाला हो) और मान लिया गया कि....
क्या ये रचनाकार के साथ अन्याय नहीं है. दुष्यंत की ग़ज़लों में कितनी ग़ज़लें ऐसी हैं जो वास्तव में दुष्यंत की हैं.(बिना इस्लाह की)
अनिरुद्ध सिन्हा दुष्यंत कुमार नहीं हैं, नही हो सकतें, और होना भी नहीं चाहिये. और यदि ऐसा है तो कवि की अपनी मौलिकता क्या है ? किसी परम्परा का अनुकरण भर होना श्रेष्ठता का मापदण्ड नहीं होता.
आम आदमी से लेकर समाज और समूचे राष्ट्र तक जिसकी निगाहें ठहरी हों, अतीत से लेकर वर्तमान और भविष्य के दृष्य जिसकी नज़रों में हों उसकी सृजनात्मक क्षमता पर संदेह करना क्या उचित होगा ?
मजहबों में यूं सुलगता देश अपना देखकर
क्या  बताएं आपको क्या आपकी किस्मत में है ?
वर्तमान जीवन के प्रति उनकी दृष्टि कितनी सटीक और पैनी रही है इसका नमूना हैं ये दो शेर-
जहां हर  शख्स  का सपना महज आंसू बहाता है
हमारा  रहनुमा अक्सर  वही  चैखट  दिखाता है
वही सूरत उभर  कर सामने  आने लगी  फिर से
कि जिसको  देखते  ही  आइना भी टूट जाता है
सभ्यता, संस्कृति और परम्परागत मूल्यों के ऊपर गहराते बादल इन ग़ज़लों में सर्वत्र छाए हुए हैं.
हो गए सारे गलत ही  आपके  पूर्वानुमान
नग्नता के स्वाद चखती ये सदी भी खूब है
जहां तक शब्दों को बरतने के हुनर का सवाल है उसमें कुछ  और अभ्यास व सलीका उचित होगा. फिर भी पठनीय संग्रहणीय ग़ज़ल संग्रह देने के लिए रचनाकार साधुवाद का पात्र है. मौलिकता की दृष्टि से अपनी छाप छोड़ने वाले रचनाकार के हिस्से में बधाइयां और शुभकामनायें ही होनी चाहिये और वह इसके हक़दार हैं.
तपिश/अनिरूद्ध सिन्हा/प्र.स.2002/मूल्य 80 रू./प्रतिभा प्रकाशन/ गुलज़ार पोखर मुंगेर/811201

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