Wednesday, 10 October 2012

फि़ज़ा की कोख से


फि़ज़ा की कोख से,
फि़ज़ा भी कोख से, दिलीप सिंह दीपक का पहला ग़ज़ल संग्रह है. यें राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में उनकी ग़ज़लें प्रकाशित होती रही हैं और ग़ज़ल पे्रमियों के लिये उनका नाम परिचय का मोहताज नहीं है. इस संकलन में उनकी 96 ग़ज़लें संकलित हैं. इसकी भूमिका में दिनेश सिंदल का यह कथन सार्थक व समीचीन प्रतीत होता है कि ‘कस्बाई मानसिकता का एक भोला सा मन ग़ज़ल की लय से, उसकी रूमानियत से, उसकी सांकेतिकता से प्रभावित हुआ, और उसे ग़ज़ल से प्रेम हो गया’. लेकिन उन्हें मोहतरम हबीब कैफ़ी की इस बात पर भी हयान देना चाहिये कि ‘फि़जा की कोख़ से’ मंजि़ल नहीं है. यह बात शायर खुद भी जानते होंगे. इन्हें अभी और कहना है और बेहतर से बेहतरीन की सिम्त अपना सफ़र जारी रखना है.’ लेकिन उनके यहां कुछ ऐसा है जो पढ़ते समय रूकने, और ग़ौर करने को मजबूर करता है’
ये कैसी ह़वा चल रही है फि़जा में
कोई हंस रहा है कोई रो रहा है
वो अमावस का पुजारी रात से नाराज़ है
इसलिये तो चांदनी को रात में मरवा दिया.
एक दरिया में उतर के पार जाना है मुझे
आज अपने हौसले को आज़माना है मुझे
ग़ज़ल संग्रह पठनीय है और शायर सराहनीय. आप भी आज़माये.
‘फि़जा की कोख से’/दिलीप सिंह दीपक/प्र. सं. 2010/मू. 150रू./राॅयल पब्लिकेशन जोधपुर राज.

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