Wednesday 10 October 2012

ग़ज़लों का महाकोष

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साड़े पांच सौ ग़ज़लों का महाकोष
ग़ज़ल ग्रन्थ भानुमित्र के दूसरे संग्रह का शीर्षक है. इससे ग़ज़ल संग्रह की अभिव्यक्ति तो होती ही है ग्रन्थ शब्द से इसमें संकलित सामग्री की विशालता का अनुमान भी सहज ही हो जाता है 154 पृष्ठ के इस संग्रह में रचनाकार ने साड़े पांच सौ से अधिक ग़ज़लें पाठकों को परोसी हैं. एक पृष्ठ पर चार चार ग़ज़लें देकर कवि ने परंपरा के विपरीत अभिनव प्रयोग किया है. कागज की बचत से पर्यावरण के प्रति उनकी चिंता भी सहज ही स्पष्ट हो आती है. भानुमित्र इससे पूर्व हिन्दी ग़ज़ल की लहरें शीर्षक से ग़ज़ल के व्याकरण व अन्य मसलों पर एक आलोचनात्मक कृति प्रस्तुत कर चुके हैं जिसमें उनकी ग़ज़ल की समझ और अवधारणाओं की अभिव्यक्ति हुई है. अनुभवों की विविधता और संपन्नता के बलबूते मानवीय वृत्तियों पर उनकी गहरी पकड़ है जिसकी अभिव्यक्ति उनके शेरों में हुई है-
कह रहा है मन कहीं बाहर निकल जाऊँ
हो गगन मेरा भी कोई मैं उछल जाऊँ
सामायिक परिस्थितियों की विषमता और सुखद जीवन के अहसास का अभाव ही वस्तुतः व्यक्ति को कविता या शायरी की ओर उन्मुख करता है.कहकहों के बीच में भी दिल मेरा हंसता नहीं
क्या भरोसा सांस का जब जि़न्दगी मिलती नहीं
कवि ग़ज़ल विधा से कितना जुड़ा है उसकी निष्ठा प्रिय विधा के प्रति इन शेरों से महसूस की जा सकती है.
सबेरे सबेरे ग़ज़ल आ रही है
लिये सात फेरे ग़ज़ल आ रही है
वो माथे पे अपना सजाए सितारा
मिटाने अंधेरे ग़ज़ल आ रही है
थे भावों के कुंकुम ये श्रृद्धा का चावल
सुमन से बिखेरे ग़ज़ल आ रही है
वो ये जानने को बड़ा मित्र का दिल
लगाने को डेरे ग़ज़ल आ रही है
वह पुरूषार्थ की महत्ता से भी वाकिफ हैं किन्तु जीवन के समस्त क्रिया व्यापारों को सामाजिक परिवेश की देन समझते हैं
हर क्रिया की हुआ करती है प्रतिक्रिया
जन्म से आदमी चोर होता नहीं
इतनी अधिक मात्रा में ग़ज़लें देने और शायरी करने के बाद भी वह भलीभांति जानते हैं कि मानव मन की तरह शायरी का भी कोई अंतिम छोर नहीं होता.
मित्र थकता नहीं शेर कहते हुए
शायरी का कोई छोर होता नहीं
ग़ज़ल-संग्रह प्रकाशन परंपरा में अभिनव प्रयास तथा एक ही संग्रह में पाठकों को इतनी अधिक ग़ज़लें प्रस्तुत करने के लिये निश्चय ही वह बधाई के पात्र हैं. 
ग़ज़ल ग्रन्थ/भानुमित्र/प्र.सं. 2010/मू. 150रु./त्रिवेणी पब्लिकेशन बी-128 सरस्वती नगर बासनी जोधपुर राज.

आदमी है कहां


आदमी है कहां

आदमी है कहां डाॅ. गिरराज शरण अग्रवाल के सद्यः प्रकाशित ग़ज़ल-संग्रह का शीर्षक भी है और अधुनातन मानव सभ्यता के भंवरजाल में उलझे, कस्बाई शहरों से लेकर महानगरों में काॅलोनीबद्ध निवासियों के समक्ष उठा हुआ यक्ष प्रश्न भी. अपने सामाजिक सरोकारों को तलाशते हुए किसी कवि की संवेदन शीलता अपने काव्य संग्रह के लिए ऐसा शीर्षक चुनेगी. यह संभावना, आशंका मौजूदा परिस्थितियों के कारण किसी विवशता, मजबूरी का रूप ले लेगी इसकी स्वीकारोक्ति ही हृदयविदारक है.
आदमी है कहां, का सीधा साधा अर्थ है हम हंै कहां? एक समूह या समाज के रूप में हम हैं क्या? इन प्रश्नों पर प्राथमिक प्रारंभिक चिंतन नहीं ही मन मस्तिष्क को बेचैन उद्धेलित कर देता है.
आदमी है कहां? कहते हुए, पूछते हुए, सोचते हुए आदमी की मानव की खोज की शायरी में उनका आशावादी दृष्टिकोण साहित्यिक सान्त्वना प्रदान करता प्रतीत होता है, किन्तु आश्वस्त नहीं करता क्योंकि-
इक सवाल ऐसा नगर में सबके अधरों पर रहा
आज का दिन कल के बीते दिन से क्या बेहतर रहा
एक ही आंगन में रहते हैं, मगर हैं अजनबी
अब न वैसे रिश्ते नाते, अब न वैसा घर रहा
दरअसल जो भी, आदमी या समाज जैसा भी है  हमारे सामने है, और डाॅ. गिरराज शरण अग्रवाल की ग़ज़लों में भी ठीक वैसा ही है. एक हद तक यह सही है, उचित है लेकिन यह यथास्थिति है, वर्तमान यथार्थ है किन्तु इसमें भावी मानव जीवन या सभ्यता के लिये आशावाद कहां है? यह केवल बात की तह तक पहुंचने की कोशिश है या आमजन को घुमा फिराकर प्रेरित करने का अभिनव प्रयास-
करता है गिला ताजा हवा क्यों नहीं आती
ये देख तेरे घर में झरोखा भी नहीं है
यहां तक आते आते बात कुछ कुछ समझने में आने लगती है और समझ जब इस शेर पर केन्द्रित होती है तो शंकाओं का निवारण किसी न किसी रूप में हो ही जाता है.
खुशबू की कोई हद है न सीमा न दायरा
खुशबू हवा के साथ जहां जा सकी गई
जो पल तुझे मिले हैं गनीमत समझ के जी
हैं जि़न्दगी का क्या ये अभी थी, अभी गई.

आशा की छांव में आदमी की खोज की शायरी की संतुष्टि यहां भी मिलती है. जब वह खुलकर कहते हैं
प्यार की सौगात बांटें आओ तुम भी मेरे साथ
लोग अब इक-दूसरे से अजनबी होने लगे
याकि काश यह बीमार दुनिया वह भी दिन देखे कि जब
उम्रभर के दुश्मनों में दोस्ती होने लगे
सूंघ ही लेंगे महक सारे ज़माने वाले
पहले फूलों की तरह आदमी महके तो सही
भाषा सरल सहज सम्पे्रष्य हिन्दी है लेकिन हिन्दी का अतिरेक कहीं कहीं शेर की रवानी और तासीर में रोड़े भी अटकाता है. जैसे-
दोस्त यह पतझड़ का मौसम सामयिक है, जाएगा
हर बसंती रूत का अब जा जाके लौट आना समझे.
या आंधियां भी छिपी हुई हैं यहां
नींड़ मजबूत शाख पर रखना
ऐसे इक्का दुक्का शब्द प्रयोगों को दरकिनार कर दें तो परंपराओं पर आस्था और वर्तमान के प्रति संतुष्टि का अहसास ही ऐसे आत्मविश्वास के रूप में झलकता है.
हमने पत्थर के भीतर से खोजी चमक
हमने ढूंढा तो हमसे उजाला हुआ
ऐसी ही चमकदार उजली पुख्ता ग़ज़लें इस संग्रह में हैं और पूरे संग्रह से गुजरने के बाद लगता है कि कवि का आशावादी दृष्टिकोण का दावा गलत नहीं है.
आदमी है कहां/डाॅ. गिरराज शरण अग्रवाल/प्र.सं. 2010/मूल्य150 रु/हिन्दी साहित्य निकेतन बिजनौर मप्र.

रत्ना तुलसी की जीवनकथा


रत्ना तुलसी की जीवनकथा

रत्ना तुलसी गीतकार घनश्याम योगी द्वारा रचित तुलसी रत्ना की जीवन कथा है जिसने आकारिक संक्षिप्तता के बावजूद प्रबंध काव्य का रूप ग्रहण किया है. कवि के अनुसार इसका ‘प्रेरणा स्त्रोत अमृतलाल नागर की बहुचर्चित कृति-मानस का हंस है. संपूर्ण कथानक 18 अध्यायों में विभाजित है किन्तु उनका नामकरण नहीं किया गया है. प्रारंभ में मंगलाचरण के अनुरूप बुद्धि के देवता गणेश, मां सरस्वती एवं भगवान शंकर की स्तुति है.
कथानक का प्रारम्भ मुगलों के आक्रमण और साम्प्रदायिक दंगों की छाया में, तुलसी के जन्म, उनकी मां की मृत्यु और उनके बहिष्कार से हुआ है, द्वितीय अध्याय में सात वर्ष के अनाथ बालक के रूप में तुलसीदास के जीवन से जुड़ी घटनाओं, और किवदंतियों का विवरण है. उत्तरोत्तर अध्यायों में उनकी संवेदनशीलता और युवावस्था की झांकियां है. उनका प्रेम प्रसंग और विवाह की परिणति रत्ना की मृत्यु और तुलसी द्वारा अपने वचन के निर्वहन के रूप में होती है. कृति का अधिकांश घटनाओं का धारा प्रवाह वर्णन है फिर भी तुलसी की बाल्यावस्था में रोचकता है और रत्ना ी सहागरात के वर्णन तथा मृत्यु के प्रसंग में लेखनी सजीव  हो उठी है. अयोध्या जाने के प्रसंग और राम जन्म भूमि-मस्जिद प्रसंग में कवि ने लेखकीय दायित्व का निर्वहन करते हुए सामाजिक समसरता बनाये रखने का प्रयास किया है.
संभवतः यह पहला प्रबंध काव्य है जिसमें  तुलसी और रत्ना को समान महत्व दिया गया है. इसका  दूसरा महत्व इसकी लोकभाषा है. जिस तरह तुलसीदास ने संस्कृत रामायण का लोक भाषा में अनुवाद कर रामचरित मानस को जन-जन में लोकप्रिय बनाया वैसी ही प्रयास कवि ने किया है. और मुद्रण या प्रूफ की तमाम त्रुटियां इसके महत्व को कम नहीं करती है. यों प्रबंध काव्य की कुछ मान्यताओं का निर्वहन हुआ है और कुछ का नहीं. कृति जन मानस को स्वीकार्य हो ऐसी कामना है.
रत्ना तुलसी की जीवनकथा/घनश्याम योगी/प्र.सं. 2008/संस्कृति प्रकाशन, योगी कुटीर वार्ड क्र. 4 करैरा जि. शिवपुरी म.प्र.

एक दुष्यंत और.....


एक दुष्यंत और.....

एक दुष्यंत और..............डाॅ. रमेश कटारिया पारस  द्वारा संपादित काव्य संग्रह है जिसमें 140 रचनाकारों की विभिन्न विधाओं यथा-गीत, ग़ज़ल एवं छंदमुक्त कवितायें संकलित है यूं तो कविता जीवन और आम आदमी के दुखदर्द से सरोकार रखती है, किन्तु इन दिनों आम आदमी का खुद कविता से कोई सरोकार नहीं है. इलेक्ट्रोनिक मीडिया आदमी पर इतना हावी हो चुका है कि साहित्यिक पुस्तकों से उसका कोई संपर्क नहीं रहा फिर भी समाज और वर्तमान जीवन के प्रति चिंतित रचनाकार अभी भी अपने दायित्वों के निर्वहन के प्रति सचेत हैं और अपने स्तर पर इसके लिये प्रयास कर रहे हैं. डाॅ. रमेश कटारिया भी उन्हीं लगनशील रचनाकारों में से एक हैं. वह पिछले कई वर्षाें से न सिर्फ नए रचनाकरों को प्रकाशन का एक मंच मुहैया करा रहे हैं अपितु समाज के प्रति अपने कर्तव्यों का पालन भी कर रहे हैं यह प्रकाशन भी उनके इस उपक्रम की एक कड़ी है.
इसमें सम्मलित ग़ज़ल, गीत, कविताओं में वैयक्तित्व अनुभूतियां भी हैं और सामाजिक समस्याओं के प्रति उनकी चिंताओं अनुभवों का इज़हार भी. इस संग्रह की एक विशेषता यह भी है कि इसमें तीन पीढि़यों के नये पुराने रचनाकार एक साथ उपस्थित हैं. इनकी रचनाओं में पीढि़यों के अंतराल और उनके सोच को आसानी से समझा जा सकता है.
चूंकि वर्तमान साहित्य के प्रति न राष्ट्रीय समाचार पत्रों में जगह है न राष्ट्रीय पत्रिकाओं में, राजनीति और राजनीतिक समाचार उनकी पहली प्राथमिकता है. इन परिस्थितियों में साहित्यिक पत्रिकायें और सहयोगी काव्य संग्रह ही विकल्प रूप में शेष है. इस दृष्टि में रमेश कटारिया का यह संग्रह प्रशंसनीय है. यद्यपि वर्तमान युग में साहित्यिक पत्रिकायें या कविता संग्रह खरीदकर पढ़ने की प्रथा नहीं है फिर भी इस संग्रह में संकलित रचनाओं के आधार पर पाठकों से यही अनुशंसा करना चाहूंगा कि वह इसे खरीदकर पढें और प्रकाशक संस्था व रचनाकारों को मनोबल को सुदृढ़ करें.
एक दुष्यंत और/सं. डाॅ. रमेश कटारिया पारस/प्र.सं. 2009/मू 150रू.

फि़ज़ा की कोख से


फि़ज़ा की कोख से,
फि़ज़ा भी कोख से, दिलीप सिंह दीपक का पहला ग़ज़ल संग्रह है. यें राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में उनकी ग़ज़लें प्रकाशित होती रही हैं और ग़ज़ल पे्रमियों के लिये उनका नाम परिचय का मोहताज नहीं है. इस संकलन में उनकी 96 ग़ज़लें संकलित हैं. इसकी भूमिका में दिनेश सिंदल का यह कथन सार्थक व समीचीन प्रतीत होता है कि ‘कस्बाई मानसिकता का एक भोला सा मन ग़ज़ल की लय से, उसकी रूमानियत से, उसकी सांकेतिकता से प्रभावित हुआ, और उसे ग़ज़ल से प्रेम हो गया’. लेकिन उन्हें मोहतरम हबीब कैफ़ी की इस बात पर भी हयान देना चाहिये कि ‘फि़जा की कोख़ से’ मंजि़ल नहीं है. यह बात शायर खुद भी जानते होंगे. इन्हें अभी और कहना है और बेहतर से बेहतरीन की सिम्त अपना सफ़र जारी रखना है.’ लेकिन उनके यहां कुछ ऐसा है जो पढ़ते समय रूकने, और ग़ौर करने को मजबूर करता है’
ये कैसी ह़वा चल रही है फि़जा में
कोई हंस रहा है कोई रो रहा है
वो अमावस का पुजारी रात से नाराज़ है
इसलिये तो चांदनी को रात में मरवा दिया.
एक दरिया में उतर के पार जाना है मुझे
आज अपने हौसले को आज़माना है मुझे
ग़ज़ल संग्रह पठनीय है और शायर सराहनीय. आप भी आज़माये.
‘फि़जा की कोख से’/दिलीप सिंह दीपक/प्र. सं. 2010/मू. 150रू./राॅयल पब्लिकेशन जोधपुर राज.

कुछ न कुछ वैसा


कुछ न कुछ वैसा

दिनेश जिंदल हिन्दी गजल का महत्वपूर्ण नाम है .‘कुछ न कुछ वैसा’ उनका नवीनतम गजल संग्रह है जिसमें उनकी 72 ग़ज़लें संकलित है इसके पूर्व उनका गजल संग्रह चुप्पियाॅं शीर्षक से प्रकाशित हुआ था और उसकी गजलें भी चर्चा का विषय रही थीं. वे अपनी मेहनतों और कोशिशों के बाद भी गजल को खुदा की मेहरबानी या आमद का विषय समझते हैं यह संतोषदायी है. उनके पास गजल की कहन भी है और विषय वस्तु की विविधता भी. साथ ही समयानुकूल नवीनता भी जो इन दिनों कम ही देखने को मिलती हैं. देखें -
वहाॅं आकर के मैं चुपचाप वापिस लौट जाता हॅूं
जहाॅं आकर के अक्सर चीटियों के पर निकले हैं
उस आॅंगन में दीवारें उठ आई हैं
जिस आॅंगन में खेले सुबह शाम बहुत
तुम हुये सागर तो मैं भी एक बादल की तरह
मिट गया मिटकर नदी की धार को जिंदा किया
हिन्दी भाषी रचनाकार यह बात समझ कर भी समझना नहीं चाहते. कि ग़ज़ल लिखने यानि कहने से भी अधिक जीने का हुनर है. सच्ची और अच्छी ग़ज़लें वही कह पाता है जो ग़़ज़लों को जीने का हुनर जानता है. ग़ज़ल पर हिन्दी या उर्दू नाम न चस्पा किया जाये. लेकिन वह पढ़ने सुनने में ग़ज़ल जैसी लगे. यही उसकी सबसे बड़ी खूबी है. इस नज़रिये से दिनेश सिंदल बधाई के पात्र हैं. कहीं कहीं वर्तनी और बहर की त्रुटियां खटकती हैं. लेकिन यह ग़ज़लें ग़ज़ल साहित्य में नई बहार की सूचक हंैं जो विषम परिस्थितियों में नई उम्मीदें बनाये रखती हैं.
कुछ न कुछ वैसा/दिनेश सिंदल/प्र.सं. 2009/मू.150रु./शशि प्रकाशन बीकानेर राज.

रोशनी की इबारत


रोशनी की इबारत
-डाॅ.महेन्द्र अग्रवाल

रोशनी की इबारत ज़रूरत से ज़्यादा संवेदनशील कवियत्री डाॅ.प्रभा दीक्षित की शताधिक ग़ज़लों का संग्रह है. हिन्दी, अंग्रजी, संस्कृत विषयों में स्नातकोŸार डाॅ.प्रभा दीक्षित को उर्दू से पगी विधा ग़ज़ल ने यदि आकर्षित किया तो यह कानपुर की आबो हवा का असर ही समझना होगा इन ग़ज़लों में कथ्य की दृष्टि से वह तमाम विषय समाविष्ट हैं जो आजकल लिखी जा रही ग़ज़लों में होते हैं याकि होना चाहिए. इन ग़ज़लों में उनकी वेदना, विद्वता, और व्यक्तित्व की दबंगी तीनों ही सिर चढ़कर बोलती हैं मसलन-
चंद गूंगों की मैं जुबां भी हूं
एक पत्नी हूं और मां भी हूं
  दर्द किसी का धैर्यवान था  रूपगर्विता  हार  गई
  आधी रात मिलन के तट पर तैर नदी के पार गई
    लड़कों की तरह रह नहीं पाती  हैं लड़कियां
    हर बात खुल के कह नहीं पाती हैं लड़कियां
   गै़र के धोखे में खु़द को क़त्ल कर देते हैं लोग
   ये गलतफहमी किसी दिन  साफ़ होनी  चाहिए.
इन ग़ज़लों में नज़र आने वाले मात्रादोष, छंद दोष, उनके हैं या प्रूफरीडिंग की त्रुटि के कारण कहना मुश्किल हैं क्योंकि उनसे ऐसी अपेक्षा नहीं है ग़ज़ल एक पेचीदा विधा है, जब तक कि उसे रूह के स्तर पर महसूस न किया जाए. कहा भी जाता है कि ग़ज़ल का हर शेर समझाया जा सकता है, उसकी व्याख्या की जा सकती है परन्तु वह समझने के लिये नहीं अपितु महसूस करने के लिये है. ग़ज़ल की गीतात्मक भाषा और अर्थ आदि तकनीकी तथ्यों पर गौर न करें तब भी इस संग्रह की पृष्ठभूमि में उनका मूल मकसद मानवता की सेवा रहा है, और इस कारण वह वंदनीय है...
रोशनी की इबारत/डाॅ.प्रभा दीक्षित/प्र.सं.2001/मू.150रू./युगप्रभा प्रकाशन कानपुर (उ.प्र.)

गीत नवांतर


गीत नवांतर
गीत नवांतर मंे देश के बारह प्रतिनिधि गीतकारों की गीत रचनायें संकलित हैं,जोकि पूर्णतः नवगीतकार के रूप में जाने पहचाने जाते रहे हैं, गीत यात्रा में नए कथ्य, नई भाषा शैली, नए बिम्ब और गीत की लयात्मकता को बरकरार रखते हुए जिस नवछंद विधान की परिपाटी के प्रचलन पर नवगीत की बुनियाद रखी गई थी उसको अंगीकार करते हुए इसके प्रकाशन के पीछे सम्पादक प्रकाशक मधुकर गौड़ का मूल उद्धेश्य रहा है,कि ‘‘गीत नवगीत के रूप में फैला विवाद समाप्त हो’’ इस बात को उनके इस कथन से भी समझा जा सकता है,कि ‘‘गीत मेें जो नया अन्तर आया है वह गीत का नवांतर ही तो है अतः हम इसे गीत का नवांतर कहना अधिक उपयुक्त समझते हैं, अर्थात नवगीत गीत से हटकर या गीत से अलग कोई विधा या शैली नहीं है. उनके अभिमत में आजकल नवगीत के नाम से लिखे जा रहे गीत शब्दों की दुरुहता के साथ लयहीनता का शिकार हो रहे हैं परिणामतः वह गीत के विपरीत नई कविता के कहीं अधिक निकट हंै. पर गीत नवांतर के अन्तर्गत वहीं नवगीत प्रस्तुत किए गए हैं जो इस धारणा से परे गीत को शिखर पर स्थापित करने की सामथ्र्य रखते हैं इस दृष्टि से मधुकर गौड़ का श्रम अभिनंदनीय है यों भी गीत विधा के प्रति उनकी निष्ठा और समर्पण सदैव अंसदिग्ध हीे रही हैै.
फिर भी हिन्दी साहित्य में इस संग्रह के सामने आने से कुछ सवाल उठते हैं, जिनसे बचा नहीं जा सकता. क्या गीत नवांतर-गीत या नवगीत का पर्यायवाची है या अधुनातन नवगीतों के ढेर में से चुने हुए उच्चकोटि के नवगीतों की नई संज्ञा है’’ क्या गीत  नवांतर कह देने भर से गीत पर हो रही अस्थिरता की चोंटे समाप्त हो जायेंगी ? फिर भी महत्वपूर्ण और रेखांकित करने योग्य तथ्य यह है,कि संकलित सभी रचनाकारों ने पूर्णतः या आंशिक रूप से प्रकाशक सम्पादक के स्वर से अपनी सहमति दर्ज करायी है, यह सभी रचनाकार आने वाले समय में इस पर कायम रहेंगे यह भविष्य के गर्भ में है. खैर ये बातें ऐसी हैं, जोकि इस संग्रह की रचनाओं से जुड़ी हुई नहीं है. मूल प्रश्न यह है,कि गीत नवांतर में संकलित रचनायें गीत की इस नवोन्मेषी दृष्टि के कितने करीब हैं. इस      आधार पर सम्पादक द्वारा न सिर्फ रचनाकार अपितु रचनाओं का चयन भी सूझबूझ भरा है.
अधिकांश गीतों के मुखड़ें और अंतरे ऐसे हैं जो सिर चढ़कर बोलते हैं और जन जीवन में लोकोक्ति का रूप लेने की सामथ्र्य रखते हैं,
हम जीवन के महाकाव्य हैं
केवल छंद प्रसंग नहीं हैं -देवेन्द्र शर्मा ‘इन्द्र’
चल नहीं पाये
समय की
बांह में हम बांह डाले     -विद्यानन्दन राजीव
भीलों ने बांट लिये वन
राजा को ख़बर तक नहीं  -श्री कृष्ण तिवारी
क्या शिकवे
क्या करें गिले
जब मिले-बहेलिये मिले          -मधुकर गौड़
अपने भीतर आग भरो कुछ
जिससे यह मुद्रा तो बदले    -यशमालवीय

गीत की अस्मिता और लयबद्धता के साथ लोक जीवन से गहरा जुड़ाव और सामयिक यथार्थ की अभिव्यक्ति संकलित रचनाओं की विशेषता है. हिन्दी कविता में गीत को पुनः शिखर पर ले जाने की अभिलाषा और सार्थक चेष्टा के लिये सम्पादक का यह श्रम सार्थक भी है और अनुकरणीय भी.
गीत नवांतर/सं.मधुकर गौड़/प्रथम संस्करण मई 2003/मू. 30रू/ मुम्बई

वक़्त की तपिश का एहसास कराती ग़ज़लें


वक़्त की तपिश का एहसास कराती ग़ज़लें
डाॅ.महेन्द्र अग्रवाल

ग़ज़ल की अपनी एक अलग परम्परा भी है और अपनी अलग तहज़ीब भी, हिन्दी कवियों ने लाख कोशिशें की किन्तु सफलता आंशिक रूप से ही मिली. ईमानदारी से देखा और सोचा समझा जाये तो हिन्दी कविता में वही ग़ज़लकार चर्चित हो सके जिन्होंने ग़ज़ल को ही नहीं ग़ज़ल की तहज़ीब को भी जिया है. यहां एक सवाल उठाया जा सकता है,कि ऐसा आखिर क्यों है ? लेकिन सवाल यहां न प्रासंगिक है और न समीचीन. सवाल यह है,कि बिहार जैसी भयंकर भूमि में (ऐसा लोग कहते हैं) अनिरुद्ध सिन्हा अगर ग़ज़ल कहते हैं तो क्यों कहते हैं और कैसी कहते हैं ? यद्यपि हिन्दी में ग़ज़लें बेशुमार कही जा रही हैं और पहले जैसा समीक्षा के अभाव का रोना भी नहीं रहा फिर भी हिन्दी साहित्य में ग़ज़ल समीक्षा के कोई मानदण्ड स्थापित हुए हों ऐसा भी नहीं है, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल  ने जिस तरह से रामचरित मानस को आधार बना रखा था वैसी ही स्थिति हिन्दी ग़ज़ल समीक्षा में दुष्यंत कुमार त्यागी की है। उन्हें लांघने की किसी की कोशिश अभी तक सफ़ल नहीं हुई. (भले ही अदमगोंडवी को एक प्रतिबद्ध विचार धारा वालों ने कितना ही क्यों न उछाला हो) और मान लिया गया कि....
क्या ये रचनाकार के साथ अन्याय नहीं है. दुष्यंत की ग़ज़लों में कितनी ग़ज़लें ऐसी हैं जो वास्तव में दुष्यंत की हैं.(बिना इस्लाह की)
अनिरुद्ध सिन्हा दुष्यंत कुमार नहीं हैं, नही हो सकतें, और होना भी नहीं चाहिये. और यदि ऐसा है तो कवि की अपनी मौलिकता क्या है ? किसी परम्परा का अनुकरण भर होना श्रेष्ठता का मापदण्ड नहीं होता.
आम आदमी से लेकर समाज और समूचे राष्ट्र तक जिसकी निगाहें ठहरी हों, अतीत से लेकर वर्तमान और भविष्य के दृष्य जिसकी नज़रों में हों उसकी सृजनात्मक क्षमता पर संदेह करना क्या उचित होगा ?
मजहबों में यूं सुलगता देश अपना देखकर
क्या  बताएं आपको क्या आपकी किस्मत में है ?
वर्तमान जीवन के प्रति उनकी दृष्टि कितनी सटीक और पैनी रही है इसका नमूना हैं ये दो शेर-
जहां हर  शख्स  का सपना महज आंसू बहाता है
हमारा  रहनुमा अक्सर  वही  चैखट  दिखाता है
वही सूरत उभर  कर सामने  आने लगी  फिर से
कि जिसको  देखते  ही  आइना भी टूट जाता है
सभ्यता, संस्कृति और परम्परागत मूल्यों के ऊपर गहराते बादल इन ग़ज़लों में सर्वत्र छाए हुए हैं.
हो गए सारे गलत ही  आपके  पूर्वानुमान
नग्नता के स्वाद चखती ये सदी भी खूब है
जहां तक शब्दों को बरतने के हुनर का सवाल है उसमें कुछ  और अभ्यास व सलीका उचित होगा. फिर भी पठनीय संग्रहणीय ग़ज़ल संग्रह देने के लिए रचनाकार साधुवाद का पात्र है. मौलिकता की दृष्टि से अपनी छाप छोड़ने वाले रचनाकार के हिस्से में बधाइयां और शुभकामनायें ही होनी चाहिये और वह इसके हक़दार हैं.
तपिश/अनिरूद्ध सिन्हा/प्र.स.2002/मूल्य 80 रू./प्रतिभा प्रकाशन/ गुलज़ार पोखर मुंगेर/811201

हिन्दी ग़ज़ल के कुशल चितेरे


हिन्दी ग़ज़ल के कुशल चितेरे
                            -डाॅ.महेन्द्र अग्रवाल
हिन्दी ग़ज़ल के कुशल चितेरे - भाग 1 डाॅ. रोहिताश्व अस्थाना की नवीनतम सम्पादित कृति हैं. इसमें 22 गजलकारों की 14-14 संकलित हैं. इन गजलकारों में डाॅ. अजय जनमेजय, विज्ञानब्रत सूर्यदेव पाठक पराग, ऊषा यादव ऊषा, डाॅ. मधुभारती, राजेन्द्र व्यतित, बीरेन्द्र हमदम, सागरमीरजापुरी, डाॅ. सादिक नबाब सहर जैसे चर्चित गजलकारों के साथ कई अन्य रचनाकारों को भी स्थान दिया गया हैं.
डाॅ. रोहिताश्व अस्थाना ने हिन्दी गजल-उद्भव और विकास शीर्ष पर शोध किया हैं. इससे पूर्व उनके द्वारा नवीनतम हिन्दी गजलें, बहुरंगी हिन्दी गजलें, प्रतिनिधि हिन्दी गजलें, इन्द्रधनुषी गजलें, हिन्दी गजल पंचदशी आदि सम्पादित कृतियां प्रकाशित हुई है. इन सभी मंे उन्होंने गजल के साथ हिन्दी विशेषण जोड़ने का उपक्रम किया है. उनके मत में गजल जब हिन्दी में सोची, समझी और कही या लिखी जा रही है. तो उसके साथ हिन्दी का भाषिक विशेषण जुड़ना ही चाहिए .......... इनमें प्रतीक, बिम्व एवं उपमाएं प्रायः भारतीय परिवेश से ही ग्रहण की जाती हैं.’’ किन्तु यहाॅ पर इसकी विस्तृत चर्चा बेमानी हैं.
इस संग्रह में स्थापित गजलकारों के अतिरिक्त कुछ रचनाकारों की कुछ ऐसी गजलें भी हैं जो हिन्दी गजल की वास्तविकता पर प्रकाश डालती हैं
वर्ष भर की कोशिशांे का गुड़ यहाँ
एक क्षण में नष्ट कर गोबर किया
सभ्यता बनती  हजारों  वर्ष  में
हम सभी ने गाय और सुअर किया          पृ.149
अब तो इक या दो बच्चों पर रोक लगा देते
तुमने पाॅच-पाॅच  शिशुओं को वक्ष लगया  था पृ.120
कथ्य की नवीनता के बावजूद ऐसी गजल रचनाऐं गजल होने का एहसास नहीं कराती यांे इसमें अच्छी सुन्दर पठनीय गजलें भी हैं.
इस तरह के काव्य संग्रहों का  अपना महत्व होता है इसमें इधर  उधर बिखरे कवि-रचनाकार एक स्थान पर अध्ययन अवलोकन को उपलब्ध हो जाते हैं. इससे भविष्य में शोधार्थियों को मदद मिलती है और निश्चित कालखण्ड की रचनात्मक प्रवृत्तियों का निर्धारण भी सुगमता से हो जाता हैं. डाॅ. रोहिताश्व अष्थाना इस क्षेत्र मंे निरंतर कार्य करते रहें हैं के वह बधाई के पात्र हैं.
हिन्दी गजल के कुशल चितेरे भाग - 1/सं. डाॅ. रोहिताश्व अष्थाना, प्र.सं. 2007-08/मूल्य 200 रू.- प्र. सहयोगी साहित्यकार प्रकाशन बावन चुंगी हरदोई उ.प्र.



मनमोहक ग़ज़लें


मनमोहक ग़ज़लें
-डाॅ.महेन्द्र अग्रवाल
सुरेन्द्र चतुर्वेद्वी गजल की शानदार जानदार शख्सियत हैं उनके पास गजल कहने की सलाहियत भी है और गजल का मुहावरा भी. ग़ज़ल की तमीज जैसे उनके खून में रची बसी है.‘‘कोई अहसास बच्चे की तरह’’ उनका पहला ग़ज़ल संग्रह है जो मेरी नजरों से गुजरा हैं.ये अलग बात है कि यह उनका छठा ग़ज़ल संग्रह हैं. इससे कब्ल उनके पांच ग़ज़ल संग्रह - दर्द बे-अंदाज़, वक़्त के खिलाफ, अंदा़जे बयां और, आसमा मेरा भी था, अंजाम ख़ुदा जाने, प्रकाशित हो चुके हेैं.
इस संग्रह से गुज़रते हुए मुझे लगा कि इन ग़ज़लों की खूबसूरती लफ्जों में बयां नहीं की जा सकतीं. गुलाब का फूल सुन्दर है, मनमोहक है, दर्शनीय है, आत्मा को सुकून देता है, और-और क्या कहेंगे ? एक सीमा के बाद लफ्ज आपका साथ छोड़ देते हैं. लेकिन अंदर ही अंदर कुछ ऐसा है जो उससे जोड़े रखता हैं. सुरेन्द्र चतुर्वेद्वी की गजलें भी इसी अहसास की तर्जुंमानी हैं. अपने बच्चे की तरह यह गजलें भी आत्मीय लगती हैं. अपनी प्रतीत होती हैं. इस बदलती दुनिया, बदलते रिश्तों के बीच जब वो ऐसे शेर कहते हैं -
मुझे महसूस होता है कि हूॅ मैं कर्बला में
मैं अपने भाइयों से जब वफायें मांगता हूॅ.
रूह में तब्दील हो जाता है मेरा ये बदन
जब किसी की याद में हद से गुज़र जाता हूॅ मैं.
उसे ढूंढ़ने की कोशिश भी अजब तजुर्बा लगी मुझे
छुपा हुआ था जैसे कोई तहखाना तहखानों में
लौट आए इस तरह उससे निभा कर दोस्ती
कै़द से लौटे कोई, जैसे जवानी काटकर.
हर सू महकती नर्गिसी, खुशबू की तरह हैं
घर में मेरे ये बेटियां उर्दू की तरह हैं.
यों कुछ गजलों में तकनीक की दृष्टि से प्रश्न चिन्ह खड़े किए जा सकते हैं. फिर भी शेरी जरूरत की बिना पर इन्हें नजर अंदाज किया जाना चाहिए. यह गजल संग्रह आम आदमी ही नहीं हर गजल कहने सुनने वालों के लिये पठनीय भी है और संग्रहणीय भी.
कोई एहसास बच्चे की तरह/सुरेन्द्र चतुर्वेद्वी/प्र.सं. 2007/मू. 80 रू./बोध प्रकाशन, ऐचार बिल्डिंग, सांगासेतु रोड़, सांगानेर जयपुर

नई लहरें


हिन्दी ग़़ज़ल की नई लहरें
‘‘हिन्दी ग़़ज़ल की नई लहरें’’ शीर्षक से ग़ज़लकार भानुमित्र की नई कृति सामने आई है जो कि वस्तुतः हिन्दी ग़ज़लकारों को बहरों यानि लहरों अर्थात छन्द शास्त्र को समझाने के लिये रची गई है. इस कृति में लेखक ने जितना प्रयास ग़ज़लकारों को ग़ज़ल के दुरुह छन्द विधान को समझाने का किया है उतना ही इस बात के लिये भी कि उनसे पूर्व आर.पी.शर्मा महर्षि, डाॅ.कुंअर बैचेन, ख़्वाब अक़बरा बादी, अशआर उरैनवी आदि ने अपनी पुस्तकों में ग़ज़ल के छन्द विधान को जिस ढंग से वर्णित किया है वह नवलेखकों को समझाने के लिए पर्याप्त नहीं है. उनके पूर्ववर्ती आलोचकों समीक्षकों ने अपनी कृतियों में ग़़ज़ल की बहरों को जिन रुकनांे/लयखण्डों के रूप में प्रस्तुत किया है वह उचित नहीं है. भानु मित्र जी ने इस कृति में पूर्व प्रकाशित पुस्तकों में वर्णित त्रुटियों की ओर ध्यान आकर्षित करते हुए एक नई प्रस्तुति का अभिनव प्रयास किया है और इसी आधार पर उन्होंने उर्दू बहरों को समझाने की कोशिश की है.
आलोच्यकृति उनकी विद्वता को दर्शाती है इसमें दोमत नहीं. लेकिन क्या हिन्दी भाषी ग़ज़लकार इस कृति से उसी तरह भ्रमित नहीं होंगे जैसे कि पहले हुए हैं ? हम फ़ाइलुन को बन तपो, राजभा, सीमरल, ताधिनक, रामरम के रूप में प्रदर्शित करें तो क्या गारंटी है कि हिन्दी भाषी ग़ज़लकार उसे समझ ही लेगा, और फ़ाइलुन को लिप्यिान्तर द्वारा समझायें तो क्या वह नवलेखक जिसे हम बुद्धिजीवी कहते हैं, वह नहीं समझ पायेगा?  हम आखिर क्यों इतनी तमाम तरह की बातें करके नई पीढ़ी को भ्रमित करना चाहते हैं ? इन तमाम छन्द शास्त्रों के अध्ययन, अवलोकन या पाण्डित्य प्रदर्शन के बाद भी यह बात अप्रकाशित रह जाती है कि ‘‘अरबी फारसी से उर्दू तक बहरों का मूल आधार ध्वनि के आरोह अवरोह का एक क्रम भर है और यह       ध्वनि के उच्चारण से संबंधित है न कि उसके लिपिबद्ध होने से’’. आजकल बहर के आधार पर अपने शेर को सही सिद्ध करने के लिए लिपि को भी बिगाड़ने के प्रयास किये जा रहे हैं, बाल की खाल खींची जा रही है जो कि ग़ज़ल जैसी नाजुक विधा के मिज़ाज के प्रतिकूल है. बहर हमारी सांसों का सरगम है. बहते पानी की कलकल ध्वनि है, पक्षियों का मधुर स्वर है, यह ग़ज़ल में अपने आप आता है यदि हमारा मिज़ाज ग़़ज़ल के विधा के अनुकूल है. इसे ठोक-पीटकर नहीं लाना पड़ता.
भानु मित्र जी ने ग़ज़ल को भलीभांति समझा है. उसके सूक्ष्म अंगों और बहरों की भी उन्हें जानकारी है. यों ज्ञानार्जन  और ग़ज़ल लेखन की दृष्टि से पुस्तक पठनीय है लेकिन यह कृति ग़ज़लकारों को कितना लाभान्वित करेगी यह हिन्दी भाषा में ग़ज़ल का कोई नौमश्क शायर ही बता सकता है जो उनकी पुस्तक के अध्ययन से ग़ज़ल को समझकर सही ढंग से ग़ज़ल कहने लगा हो.
हिन्दी ग़ज़ल की नई लहरें/भानु मित्र/प्र.सं.2006/मूल्य 250 रु./ शशि प्रकाशन मंदिर बीकानेर राज.

‘‘रही रदीफ़ सी’’


‘‘रही रदीफ़ सी’’ श्रीमती सरोज व्यास का पहला ग़़ज़ल संग्रह है. इसमें उनकी 101 ग़ज़लें संकलित है. इस ग़ज़लों में उनके जीवन के विविध खट्टे-मीठे अनुभव हैं जो कि शब्दों की तलाश करते हुए अशआर के रूप में सामने आये हैं. ‘‘रही रदीफ़ सी’’ शीर्षक कुछ भ्रम पैदा करता है. उन्होंने यह शीर्षक अपनी जि़न्दगी/अपनी शायरी/या ग़ज़ल विधा/ या ग़ज़ल के उस एक शेर के कारण लिया है जिसमें यह शब्द समूह व्यक्त हुआ है विचारणीय है. निःसंदेह यह उनके ग़ज़ल संग्रह का सर्वश्रेष्ठ शेर है-
ये है मौसमों का कोई असर, या ग़ज़ल का कोई निज़ाम है
मैं रही रदीफ सी, ज्यूं की त्यूं, तुम्हीं क़ाफि़ये से बदल गये
रदीफ़ एक ऐसा लफ़्ज़ है जो ग़ज़ल के मिसरों में क़ाफि़यों के साथ बार-बार आता है लेकिन उसका अर्थ और उसकी अहमियत विभिन्न शेरों में और भिन्न परिस्थितियों मंे क़ाफि़ये के साथ-साथ निरन्तर नये नये आयामों की ओर संकेत करती है. क़ाफि़ये के साथ रदीफ़ की भूमिका की विस्तृत चर्चा यहां उपयुक्त नहीं है, लेकिन क्या उनकी समूची शायरी इसी शेर और इस शीर्षक के अनुरूप है यह चर्चा का विषय अवश्य हो सकता है. उनके यहां ग़ज़ल कहने की रचनात्मक ललक है और उन्होंने इसे पूरी शिद्दत से निभाया है उनके अशआर इसकी गवाही देते हैं लेकिन बहरांे पर उनकी पकड़ और काव्योक्तियों को ग़़ज़ल का शेर बना लेने की महारत में उन्हें और परिश्रम करना चाहिए. इससे शायरी निखरती है. उदाहरण स्वरूप-
ये रात  बोले  देखो,  कैसी  मैं पहेली  हूं
दामन में लाखों तारे,  फिर भी मैं अकेली हूं
चमन को छोड़ दो, यादों के वीराने बुलाते हैं
फ़कीरों की सी जो फितरत, तो ग़मख़ाने रूलाते हंै
ग़ज़ल के प्रति उनका ग़हरा रुझान उनकी भावी शायरी के प्रति हमें आश्वस्त करता है, ग़ज़ल के चाहने वाले उनके इस संग्रह को हाथों-हाथ लेंगे यही कामना है.
रही रदीफ़ सी/सरोज व्यास/प्र.सं.2007/मूल्य 99 रु./प्र.गुरू काॅम.प्रिंट तिलक पुतला महल नागपुर महा.

नये मिज़ाज की शायरी


नये मिज़ाज की शायरी
-डाॅ. महेन्द्र अग्रवाल
ग़ज़ल की नई दुनिया में एक ‘आवाज़’ शायर अशोक मिज़ाज की है, यह हिन्दी मंे उनका तीसरा ग़ज़ल संग्रह है. उनके ऊपर उर्दू के ख्यातिनाम शायर बशीर बद्र का वरद हस्त रहा है. उनके अपने शब्दों में उन्होंने ग़ज़ल को मीर से बशीर बद्र तक और शमशेर से दुष्यंत तक महसूस करने के बाद एक ऐसा रास्ता चुनने की कोशिश की है जो इन दोनों एहसास के बीच से होकर जाता है यानि उर्दू और हिन्दी ग़ज़ल के मध्य एक सेतु के रूप में उभरने की ! क्या उनकी कोशिशें परवान चढ़ीं ? और उन कोशिशों की साहित्यिक हैसियत वास्तव में क्या है ? उनके इस वक्तव्य के साथ हमें इस संग्रह को इसी नज़रिये से देखना होगा.
हिन्दी और उर्दू भाषा के मध्य संतुलन कायम करने की कोशिश करने वालों को, चाहे वह गोपालदास नीरज हो या दुष्यंत दोनों ही भाषाओं के विद्वान समीक्षक/रचनाकार खुले दिल से अपनाते नहीं है, और भविष्य में वह दोनों भाषा साहित्य में अपनी अदबी हैसियत को सदा तलाश करते रहते हैं. ये पीड़ा एक उम्र गुज़रने के बाद सामने आती है और उम्र भर सालती है.
अशोक की शायरी यूं तो उर्दू लबो लहज़े की शायरी है लेकिन उसमें कथ्य के स्तर पर कहीं कहीं नये ख़्याल नई भंगिमायें भी उभरती हैं.
   इक्कीसवीं  सदी  की अदा  कह सकें जिसे
   ऐसा भी कुछ लिखो कि नया कह सकें जिसे
   हमने  वतन  के  साथ  बड़ी   बेवफ़ाई  की
   तुमने भी क्या किया कि वफ़ा कह सकें जिसे
भाषा के स्तर पर उनकी सम्प्रेषणीयता पर कोई प्रश्न चिन्ह नहीं लगाया जा सकता है. लेकिन उनकी अपनी मजबूरियां हैं. उनके अपने शब्दों-
कहते हैं अपनी बात बड़ी सादगी से हम
फिर भी लगे दक़ीक उन्हें फ़ारसी से हम
लेकिन ये किसकी देन है, उनकी अपनी उलझन या ज़माने भर की जो उनकी शायरी में अक्सर उभरती रहती हैं-
मेरा मिज़ाज भी पत्थर सा हो गया है मिज़ाज
जो चोट खाऊं तो चिनगारियां निकलती हैं
अशोक मिज़ाज के पास शायरी का सही मिज़ाज है और यही चीज उनकी शायरी को नई उड़ान देती है. वरना किसकी हिम्मत है ये कहने की -
रात दिन सांप मेरे साथ रहा करते हैं
मेरे किरदार से चंदन की महक आती है
और उनके किरदार की तरह उनकी शायरी वास्तव में चंदन की तरह महक सकती बशर्ते थोड़ी सी मेहनत वह उरूज़्ा पर और करें.
आवाज़/अशोक मिज़ाज/प्र.सं. 2006/मूल्य 75 रूपये/वाणी प्रकाशन-21 ए, दरियागंज नई दिल्ली-1100020