Wednesday 10 October 2012

ग़ज़लों का महाकोष

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साड़े पांच सौ ग़ज़लों का महाकोष
ग़ज़ल ग्रन्थ भानुमित्र के दूसरे संग्रह का शीर्षक है. इससे ग़ज़ल संग्रह की अभिव्यक्ति तो होती ही है ग्रन्थ शब्द से इसमें संकलित सामग्री की विशालता का अनुमान भी सहज ही हो जाता है 154 पृष्ठ के इस संग्रह में रचनाकार ने साड़े पांच सौ से अधिक ग़ज़लें पाठकों को परोसी हैं. एक पृष्ठ पर चार चार ग़ज़लें देकर कवि ने परंपरा के विपरीत अभिनव प्रयोग किया है. कागज की बचत से पर्यावरण के प्रति उनकी चिंता भी सहज ही स्पष्ट हो आती है. भानुमित्र इससे पूर्व हिन्दी ग़ज़ल की लहरें शीर्षक से ग़ज़ल के व्याकरण व अन्य मसलों पर एक आलोचनात्मक कृति प्रस्तुत कर चुके हैं जिसमें उनकी ग़ज़ल की समझ और अवधारणाओं की अभिव्यक्ति हुई है. अनुभवों की विविधता और संपन्नता के बलबूते मानवीय वृत्तियों पर उनकी गहरी पकड़ है जिसकी अभिव्यक्ति उनके शेरों में हुई है-
कह रहा है मन कहीं बाहर निकल जाऊँ
हो गगन मेरा भी कोई मैं उछल जाऊँ
सामायिक परिस्थितियों की विषमता और सुखद जीवन के अहसास का अभाव ही वस्तुतः व्यक्ति को कविता या शायरी की ओर उन्मुख करता है.कहकहों के बीच में भी दिल मेरा हंसता नहीं
क्या भरोसा सांस का जब जि़न्दगी मिलती नहीं
कवि ग़ज़ल विधा से कितना जुड़ा है उसकी निष्ठा प्रिय विधा के प्रति इन शेरों से महसूस की जा सकती है.
सबेरे सबेरे ग़ज़ल आ रही है
लिये सात फेरे ग़ज़ल आ रही है
वो माथे पे अपना सजाए सितारा
मिटाने अंधेरे ग़ज़ल आ रही है
थे भावों के कुंकुम ये श्रृद्धा का चावल
सुमन से बिखेरे ग़ज़ल आ रही है
वो ये जानने को बड़ा मित्र का दिल
लगाने को डेरे ग़ज़ल आ रही है
वह पुरूषार्थ की महत्ता से भी वाकिफ हैं किन्तु जीवन के समस्त क्रिया व्यापारों को सामाजिक परिवेश की देन समझते हैं
हर क्रिया की हुआ करती है प्रतिक्रिया
जन्म से आदमी चोर होता नहीं
इतनी अधिक मात्रा में ग़ज़लें देने और शायरी करने के बाद भी वह भलीभांति जानते हैं कि मानव मन की तरह शायरी का भी कोई अंतिम छोर नहीं होता.
मित्र थकता नहीं शेर कहते हुए
शायरी का कोई छोर होता नहीं
ग़ज़ल-संग्रह प्रकाशन परंपरा में अभिनव प्रयास तथा एक ही संग्रह में पाठकों को इतनी अधिक ग़ज़लें प्रस्तुत करने के लिये निश्चय ही वह बधाई के पात्र हैं. 
ग़ज़ल ग्रन्थ/भानुमित्र/प्र.सं. 2010/मू. 150रु./त्रिवेणी पब्लिकेशन बी-128 सरस्वती नगर बासनी जोधपुर राज.

आदमी है कहां


आदमी है कहां

आदमी है कहां डाॅ. गिरराज शरण अग्रवाल के सद्यः प्रकाशित ग़ज़ल-संग्रह का शीर्षक भी है और अधुनातन मानव सभ्यता के भंवरजाल में उलझे, कस्बाई शहरों से लेकर महानगरों में काॅलोनीबद्ध निवासियों के समक्ष उठा हुआ यक्ष प्रश्न भी. अपने सामाजिक सरोकारों को तलाशते हुए किसी कवि की संवेदन शीलता अपने काव्य संग्रह के लिए ऐसा शीर्षक चुनेगी. यह संभावना, आशंका मौजूदा परिस्थितियों के कारण किसी विवशता, मजबूरी का रूप ले लेगी इसकी स्वीकारोक्ति ही हृदयविदारक है.
आदमी है कहां, का सीधा साधा अर्थ है हम हंै कहां? एक समूह या समाज के रूप में हम हैं क्या? इन प्रश्नों पर प्राथमिक प्रारंभिक चिंतन नहीं ही मन मस्तिष्क को बेचैन उद्धेलित कर देता है.
आदमी है कहां? कहते हुए, पूछते हुए, सोचते हुए आदमी की मानव की खोज की शायरी में उनका आशावादी दृष्टिकोण साहित्यिक सान्त्वना प्रदान करता प्रतीत होता है, किन्तु आश्वस्त नहीं करता क्योंकि-
इक सवाल ऐसा नगर में सबके अधरों पर रहा
आज का दिन कल के बीते दिन से क्या बेहतर रहा
एक ही आंगन में रहते हैं, मगर हैं अजनबी
अब न वैसे रिश्ते नाते, अब न वैसा घर रहा
दरअसल जो भी, आदमी या समाज जैसा भी है  हमारे सामने है, और डाॅ. गिरराज शरण अग्रवाल की ग़ज़लों में भी ठीक वैसा ही है. एक हद तक यह सही है, उचित है लेकिन यह यथास्थिति है, वर्तमान यथार्थ है किन्तु इसमें भावी मानव जीवन या सभ्यता के लिये आशावाद कहां है? यह केवल बात की तह तक पहुंचने की कोशिश है या आमजन को घुमा फिराकर प्रेरित करने का अभिनव प्रयास-
करता है गिला ताजा हवा क्यों नहीं आती
ये देख तेरे घर में झरोखा भी नहीं है
यहां तक आते आते बात कुछ कुछ समझने में आने लगती है और समझ जब इस शेर पर केन्द्रित होती है तो शंकाओं का निवारण किसी न किसी रूप में हो ही जाता है.
खुशबू की कोई हद है न सीमा न दायरा
खुशबू हवा के साथ जहां जा सकी गई
जो पल तुझे मिले हैं गनीमत समझ के जी
हैं जि़न्दगी का क्या ये अभी थी, अभी गई.

आशा की छांव में आदमी की खोज की शायरी की संतुष्टि यहां भी मिलती है. जब वह खुलकर कहते हैं
प्यार की सौगात बांटें आओ तुम भी मेरे साथ
लोग अब इक-दूसरे से अजनबी होने लगे
याकि काश यह बीमार दुनिया वह भी दिन देखे कि जब
उम्रभर के दुश्मनों में दोस्ती होने लगे
सूंघ ही लेंगे महक सारे ज़माने वाले
पहले फूलों की तरह आदमी महके तो सही
भाषा सरल सहज सम्पे्रष्य हिन्दी है लेकिन हिन्दी का अतिरेक कहीं कहीं शेर की रवानी और तासीर में रोड़े भी अटकाता है. जैसे-
दोस्त यह पतझड़ का मौसम सामयिक है, जाएगा
हर बसंती रूत का अब जा जाके लौट आना समझे.
या आंधियां भी छिपी हुई हैं यहां
नींड़ मजबूत शाख पर रखना
ऐसे इक्का दुक्का शब्द प्रयोगों को दरकिनार कर दें तो परंपराओं पर आस्था और वर्तमान के प्रति संतुष्टि का अहसास ही ऐसे आत्मविश्वास के रूप में झलकता है.
हमने पत्थर के भीतर से खोजी चमक
हमने ढूंढा तो हमसे उजाला हुआ
ऐसी ही चमकदार उजली पुख्ता ग़ज़लें इस संग्रह में हैं और पूरे संग्रह से गुजरने के बाद लगता है कि कवि का आशावादी दृष्टिकोण का दावा गलत नहीं है.
आदमी है कहां/डाॅ. गिरराज शरण अग्रवाल/प्र.सं. 2010/मूल्य150 रु/हिन्दी साहित्य निकेतन बिजनौर मप्र.

रत्ना तुलसी की जीवनकथा


रत्ना तुलसी की जीवनकथा

रत्ना तुलसी गीतकार घनश्याम योगी द्वारा रचित तुलसी रत्ना की जीवन कथा है जिसने आकारिक संक्षिप्तता के बावजूद प्रबंध काव्य का रूप ग्रहण किया है. कवि के अनुसार इसका ‘प्रेरणा स्त्रोत अमृतलाल नागर की बहुचर्चित कृति-मानस का हंस है. संपूर्ण कथानक 18 अध्यायों में विभाजित है किन्तु उनका नामकरण नहीं किया गया है. प्रारंभ में मंगलाचरण के अनुरूप बुद्धि के देवता गणेश, मां सरस्वती एवं भगवान शंकर की स्तुति है.
कथानक का प्रारम्भ मुगलों के आक्रमण और साम्प्रदायिक दंगों की छाया में, तुलसी के जन्म, उनकी मां की मृत्यु और उनके बहिष्कार से हुआ है, द्वितीय अध्याय में सात वर्ष के अनाथ बालक के रूप में तुलसीदास के जीवन से जुड़ी घटनाओं, और किवदंतियों का विवरण है. उत्तरोत्तर अध्यायों में उनकी संवेदनशीलता और युवावस्था की झांकियां है. उनका प्रेम प्रसंग और विवाह की परिणति रत्ना की मृत्यु और तुलसी द्वारा अपने वचन के निर्वहन के रूप में होती है. कृति का अधिकांश घटनाओं का धारा प्रवाह वर्णन है फिर भी तुलसी की बाल्यावस्था में रोचकता है और रत्ना ी सहागरात के वर्णन तथा मृत्यु के प्रसंग में लेखनी सजीव  हो उठी है. अयोध्या जाने के प्रसंग और राम जन्म भूमि-मस्जिद प्रसंग में कवि ने लेखकीय दायित्व का निर्वहन करते हुए सामाजिक समसरता बनाये रखने का प्रयास किया है.
संभवतः यह पहला प्रबंध काव्य है जिसमें  तुलसी और रत्ना को समान महत्व दिया गया है. इसका  दूसरा महत्व इसकी लोकभाषा है. जिस तरह तुलसीदास ने संस्कृत रामायण का लोक भाषा में अनुवाद कर रामचरित मानस को जन-जन में लोकप्रिय बनाया वैसी ही प्रयास कवि ने किया है. और मुद्रण या प्रूफ की तमाम त्रुटियां इसके महत्व को कम नहीं करती है. यों प्रबंध काव्य की कुछ मान्यताओं का निर्वहन हुआ है और कुछ का नहीं. कृति जन मानस को स्वीकार्य हो ऐसी कामना है.
रत्ना तुलसी की जीवनकथा/घनश्याम योगी/प्र.सं. 2008/संस्कृति प्रकाशन, योगी कुटीर वार्ड क्र. 4 करैरा जि. शिवपुरी म.प्र.

एक दुष्यंत और.....


एक दुष्यंत और.....

एक दुष्यंत और..............डाॅ. रमेश कटारिया पारस  द्वारा संपादित काव्य संग्रह है जिसमें 140 रचनाकारों की विभिन्न विधाओं यथा-गीत, ग़ज़ल एवं छंदमुक्त कवितायें संकलित है यूं तो कविता जीवन और आम आदमी के दुखदर्द से सरोकार रखती है, किन्तु इन दिनों आम आदमी का खुद कविता से कोई सरोकार नहीं है. इलेक्ट्रोनिक मीडिया आदमी पर इतना हावी हो चुका है कि साहित्यिक पुस्तकों से उसका कोई संपर्क नहीं रहा फिर भी समाज और वर्तमान जीवन के प्रति चिंतित रचनाकार अभी भी अपने दायित्वों के निर्वहन के प्रति सचेत हैं और अपने स्तर पर इसके लिये प्रयास कर रहे हैं. डाॅ. रमेश कटारिया भी उन्हीं लगनशील रचनाकारों में से एक हैं. वह पिछले कई वर्षाें से न सिर्फ नए रचनाकरों को प्रकाशन का एक मंच मुहैया करा रहे हैं अपितु समाज के प्रति अपने कर्तव्यों का पालन भी कर रहे हैं यह प्रकाशन भी उनके इस उपक्रम की एक कड़ी है.
इसमें सम्मलित ग़ज़ल, गीत, कविताओं में वैयक्तित्व अनुभूतियां भी हैं और सामाजिक समस्याओं के प्रति उनकी चिंताओं अनुभवों का इज़हार भी. इस संग्रह की एक विशेषता यह भी है कि इसमें तीन पीढि़यों के नये पुराने रचनाकार एक साथ उपस्थित हैं. इनकी रचनाओं में पीढि़यों के अंतराल और उनके सोच को आसानी से समझा जा सकता है.
चूंकि वर्तमान साहित्य के प्रति न राष्ट्रीय समाचार पत्रों में जगह है न राष्ट्रीय पत्रिकाओं में, राजनीति और राजनीतिक समाचार उनकी पहली प्राथमिकता है. इन परिस्थितियों में साहित्यिक पत्रिकायें और सहयोगी काव्य संग्रह ही विकल्प रूप में शेष है. इस दृष्टि में रमेश कटारिया का यह संग्रह प्रशंसनीय है. यद्यपि वर्तमान युग में साहित्यिक पत्रिकायें या कविता संग्रह खरीदकर पढ़ने की प्रथा नहीं है फिर भी इस संग्रह में संकलित रचनाओं के आधार पर पाठकों से यही अनुशंसा करना चाहूंगा कि वह इसे खरीदकर पढें और प्रकाशक संस्था व रचनाकारों को मनोबल को सुदृढ़ करें.
एक दुष्यंत और/सं. डाॅ. रमेश कटारिया पारस/प्र.सं. 2009/मू 150रू.

फि़ज़ा की कोख से


फि़ज़ा की कोख से,
फि़ज़ा भी कोख से, दिलीप सिंह दीपक का पहला ग़ज़ल संग्रह है. यें राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में उनकी ग़ज़लें प्रकाशित होती रही हैं और ग़ज़ल पे्रमियों के लिये उनका नाम परिचय का मोहताज नहीं है. इस संकलन में उनकी 96 ग़ज़लें संकलित हैं. इसकी भूमिका में दिनेश सिंदल का यह कथन सार्थक व समीचीन प्रतीत होता है कि ‘कस्बाई मानसिकता का एक भोला सा मन ग़ज़ल की लय से, उसकी रूमानियत से, उसकी सांकेतिकता से प्रभावित हुआ, और उसे ग़ज़ल से प्रेम हो गया’. लेकिन उन्हें मोहतरम हबीब कैफ़ी की इस बात पर भी हयान देना चाहिये कि ‘फि़जा की कोख़ से’ मंजि़ल नहीं है. यह बात शायर खुद भी जानते होंगे. इन्हें अभी और कहना है और बेहतर से बेहतरीन की सिम्त अपना सफ़र जारी रखना है.’ लेकिन उनके यहां कुछ ऐसा है जो पढ़ते समय रूकने, और ग़ौर करने को मजबूर करता है’
ये कैसी ह़वा चल रही है फि़जा में
कोई हंस रहा है कोई रो रहा है
वो अमावस का पुजारी रात से नाराज़ है
इसलिये तो चांदनी को रात में मरवा दिया.
एक दरिया में उतर के पार जाना है मुझे
आज अपने हौसले को आज़माना है मुझे
ग़ज़ल संग्रह पठनीय है और शायर सराहनीय. आप भी आज़माये.
‘फि़जा की कोख से’/दिलीप सिंह दीपक/प्र. सं. 2010/मू. 150रू./राॅयल पब्लिकेशन जोधपुर राज.

कुछ न कुछ वैसा


कुछ न कुछ वैसा

दिनेश जिंदल हिन्दी गजल का महत्वपूर्ण नाम है .‘कुछ न कुछ वैसा’ उनका नवीनतम गजल संग्रह है जिसमें उनकी 72 ग़ज़लें संकलित है इसके पूर्व उनका गजल संग्रह चुप्पियाॅं शीर्षक से प्रकाशित हुआ था और उसकी गजलें भी चर्चा का विषय रही थीं. वे अपनी मेहनतों और कोशिशों के बाद भी गजल को खुदा की मेहरबानी या आमद का विषय समझते हैं यह संतोषदायी है. उनके पास गजल की कहन भी है और विषय वस्तु की विविधता भी. साथ ही समयानुकूल नवीनता भी जो इन दिनों कम ही देखने को मिलती हैं. देखें -
वहाॅं आकर के मैं चुपचाप वापिस लौट जाता हॅूं
जहाॅं आकर के अक्सर चीटियों के पर निकले हैं
उस आॅंगन में दीवारें उठ आई हैं
जिस आॅंगन में खेले सुबह शाम बहुत
तुम हुये सागर तो मैं भी एक बादल की तरह
मिट गया मिटकर नदी की धार को जिंदा किया
हिन्दी भाषी रचनाकार यह बात समझ कर भी समझना नहीं चाहते. कि ग़ज़ल लिखने यानि कहने से भी अधिक जीने का हुनर है. सच्ची और अच्छी ग़ज़लें वही कह पाता है जो ग़़ज़लों को जीने का हुनर जानता है. ग़ज़ल पर हिन्दी या उर्दू नाम न चस्पा किया जाये. लेकिन वह पढ़ने सुनने में ग़ज़ल जैसी लगे. यही उसकी सबसे बड़ी खूबी है. इस नज़रिये से दिनेश सिंदल बधाई के पात्र हैं. कहीं कहीं वर्तनी और बहर की त्रुटियां खटकती हैं. लेकिन यह ग़ज़लें ग़ज़ल साहित्य में नई बहार की सूचक हंैं जो विषम परिस्थितियों में नई उम्मीदें बनाये रखती हैं.
कुछ न कुछ वैसा/दिनेश सिंदल/प्र.सं. 2009/मू.150रु./शशि प्रकाशन बीकानेर राज.

रोशनी की इबारत


रोशनी की इबारत
-डाॅ.महेन्द्र अग्रवाल

रोशनी की इबारत ज़रूरत से ज़्यादा संवेदनशील कवियत्री डाॅ.प्रभा दीक्षित की शताधिक ग़ज़लों का संग्रह है. हिन्दी, अंग्रजी, संस्कृत विषयों में स्नातकोŸार डाॅ.प्रभा दीक्षित को उर्दू से पगी विधा ग़ज़ल ने यदि आकर्षित किया तो यह कानपुर की आबो हवा का असर ही समझना होगा इन ग़ज़लों में कथ्य की दृष्टि से वह तमाम विषय समाविष्ट हैं जो आजकल लिखी जा रही ग़ज़लों में होते हैं याकि होना चाहिए. इन ग़ज़लों में उनकी वेदना, विद्वता, और व्यक्तित्व की दबंगी तीनों ही सिर चढ़कर बोलती हैं मसलन-
चंद गूंगों की मैं जुबां भी हूं
एक पत्नी हूं और मां भी हूं
  दर्द किसी का धैर्यवान था  रूपगर्विता  हार  गई
  आधी रात मिलन के तट पर तैर नदी के पार गई
    लड़कों की तरह रह नहीं पाती  हैं लड़कियां
    हर बात खुल के कह नहीं पाती हैं लड़कियां
   गै़र के धोखे में खु़द को क़त्ल कर देते हैं लोग
   ये गलतफहमी किसी दिन  साफ़ होनी  चाहिए.
इन ग़ज़लों में नज़र आने वाले मात्रादोष, छंद दोष, उनके हैं या प्रूफरीडिंग की त्रुटि के कारण कहना मुश्किल हैं क्योंकि उनसे ऐसी अपेक्षा नहीं है ग़ज़ल एक पेचीदा विधा है, जब तक कि उसे रूह के स्तर पर महसूस न किया जाए. कहा भी जाता है कि ग़ज़ल का हर शेर समझाया जा सकता है, उसकी व्याख्या की जा सकती है परन्तु वह समझने के लिये नहीं अपितु महसूस करने के लिये है. ग़ज़ल की गीतात्मक भाषा और अर्थ आदि तकनीकी तथ्यों पर गौर न करें तब भी इस संग्रह की पृष्ठभूमि में उनका मूल मकसद मानवता की सेवा रहा है, और इस कारण वह वंदनीय है...
रोशनी की इबारत/डाॅ.प्रभा दीक्षित/प्र.सं.2001/मू.150रू./युगप्रभा प्रकाशन कानपुर (उ.प्र.)