Monday 14 November 2011

लांगेस्ट ग़ज़ल ऑफ द वर्ल्ड


लांगेस्ट ग़ज़ल ऑफ द वर्ल्ड                                    -- डॉ. महेन्द्र अग्रवाल

शाहकार दीप विलासपुरी का नवीनतम ग़ज़ल संग्रह है जिसे लांगेस्ट ग़ज़ल ऑफ द वर्ल्ड के रूप में प्रस्तुत किया गया है. शायर ने विश्व कीर्तिमान रचने की चाहत से 2500 अशार की एक लम्बी ग़ज़ल कही है जिसके चुनिंदा 1000 शेर इस संग्रह में संकलित हैं. निश्चय ही ग़ज़ल एक कठिन विधा है. और उसका हर शेर किसी दूसरे शेर से कोई संबंध नहीं रखता. लेकिन रदीफ़ के निर्वाह और क़ाफ़िये, बहर आदि की पाबंदियां उसे जकड़े रखती हैं. ऐसी परिस्थितियों में कथ्य के दुहराव से बचते हुए इतने अधिक शेर निकाल लेना शायर के फिक्र की ऊंची और लम्बी उड़ानों का सबूत है.
            इस संग्रह में मानव जीवन के हर रंग और बू को ग़ज़ल के कैनवास पर उतारने की कोशिश की गई है. इसमें वर्ण्य वैविध्य तो बहुत है लेकिन ग़ज़ल का वो जादू दिखाई नहीं देता जिसके लिये ग़ज़ल जानी पहचानी जाती है. इन दिनों लिखी जा रही ग़ज़लों में वर्णित हर मौजू यहां उपस्थित है. कहीं-कहीं नये प्रयोग भी खूबसूरत अंदाज़ में मिलते हैं. जैसे-
                        मैं कोई पांचसौ का एक चमकता नोट हूं जैसे
                        मुझे शक की नज़र से देखते हैं सब यहां यारो
            लेकिन ग़ज़ल जैसी विधा हजल की ओर मुड़ जाती है तो अपने मेयार से गिर जाती है. एक सामाजिक समस्या को छूने के बावजूद अभिव्यक्ति में गंभीरता का अभाव यहां साफ झलकता है.
                        चलेगी हुस्न वालों के बिना कुछ आशिकी कैसे
                        गर इस रफ्तार से घटती रहेंगी लड़कियां यारो
            यूं शिल्प की पुख्तगी है फिर भी कुछ शेर बहर से भटके हैं. समग्रतः उनकी हिम्मत और मेहनत दोनों क़ाबिले दाद हैं.
शाहकार/दीपविलासपुरी/प्र.सं. 2010/मू.100रु./क्रांति प्रकाशन विलासपुर (यमुना नगर) हरियाणा.

कहना जरूरी है


                              कहना जरूरी है          --डॉ. महेन्द्र अग्रवाल
             
            कहना जरूरी है, हरिवल्लभ श्रीवास्तव के ग़ज़ल संग्रह का शीर्षक है. जितनी सहजता सरलता कवि के जीवन में है उतनी ही सहजता और सरलता उनकी स्वीकारोक्ति और उनकी ग़ज़लों में है.उनके वक्तव्यों में ये तथ्य शामिल  है कीमुझे उर्दू भाषा का कतई ज्ञान नहीं है, मैं उर्दू ग़ज़लों के नियमों से पूर्णतः अनभिज्ञ हूं. इस कारण उर्दू ग़ज़ल के बहर, रदीफ, क़ाफिया, मतला या मक़्ता की नियमावली मुझे मालूम नहीं है.लेकिन वर्तमान में लिखी जा  रही ग़ज़लों पर उनकी यह चिंता वाजिब है और ग़ज़ल के संबंध में उनकी जानकारी का पर्याप्त प्रमाण है कि आज ग़ज़लें कैसे और किस तरह लिखी जा रही हैं.
                        सौ दिन में सौ ग़ज़लें यार
                        मुश्किल हैं कि लिख लें यार 
                        उस पर कुछ शंका सी है
                        मार रहा है नकलें यार
 अपने समय के मानव और समाज की बिगड़ती तस्वीर के प्रति गहन चिंता उनकी रचनाओं में उजागर हुई है.
                        तुमने ऐसा क्या रखा है अपने पास खजानों में
                        आग लगाने फिरते देखे रिश्तेदार मकानों में
यह समयगत सच्चाई भी है और अपने समय के रिश्तेदारों का यथार्थ भी.मानव जाति और सभ्यता के विकास के प्रति कवि की चिंता और भावी पीढ़ियों से मोहब्बत का जजबा उनके शेरों से झलकता है.
                        बात छोटी है मगर कहना जरूरी है
                        हर किसी को हदों में रहना जरूरी है
                        ज़िद पर अड़े रहना सदा अच्छा नहीं होता
                        बच्चे बड़े हो जायें तब झुकना जरूरी है
                        ज़िन्दगी में उसूलों पर चलना जरूरी है
                        गलत कामों से बचना जरूरी है
            वस्तुतः उनकी शायरी पूरी दुनिया से प्रेम करने वाली एक भले और भोले कवि की शायरी है. जिसमें सादगी भी है और सच्चाई भी.
                        न तुम हमारे हो सके न तुम हमारे हो सके
                        नफ़रतों की वजह से हम चैन से न सो सके
और ऐसी शायरी में कविता में मीन मेख निकालना हमारी तंगदिली होगी.
कहना जरूरी है/हरिवल्लभ श्रीवास्तव/प्र.सं.2009/मू. 60रु./वाणी प्रकाशन प्रा.लि. कांदीवली पू. मुम्बई

कैकेयी-एक पुनर्विचार


कैकेयी-एक पुनर्विचार                                                  -डॉ. महेन्द्र अग्रवाल
            सीता राम महर्षि द्वारा रचित उपन्यास कैकेयी बाल्मीकि रामायण पर आंशिक रूप से आधारित होते हुए भी लेखक की कल्पनाओं से बुना गया है तथापि वह पढ़ते सयम वास्तविक प्रतीत होता है. यह लेखक की रचनात्मक प्रतिभा की अद्भुत सफलता है. यद्यपि इससे पूर्व कैकेयी के चरित्र पर केन्द्रित कल्याणी कैकेयीशीर्षक से डॉ. राधेश्याम द्विवेदी का खण्डकाव्य प्रकाशित हुआ है और उनसे पूर्व भी एक अन्य खण्डकाव्य प्रकाशित हुआ था किन्तु यह दोनों काव्य रूप हैं गद्यरूप में लेखक का यह अनूठा प्रयास है. लेखक की कल्पना शक्ति ने जिस तरह से पूरे उपन्यास का ताना बुना है वह सराहनीय है. तात्कालिक परिस्थितियों के वर्णन से लेकर कैकेयी सहित कथानक से जुड़े हुए सभी पात्रों की मनोस्थिति की समयानुसार यथोचित विवेचना पाठको के  मनोमस्तिष्क पर गहरा प्रभाव छोड़ती है. यह कृति कैकेयी के प्रति जनमानस की धारणाओं को बदलने की सामर्थ रखती है और यही लेखक के रचनात्मक प्रयास की सफलता है. कहीं कहीं कैकेयी के प्रति उनका अतिरिक्त मोह झलकता है. लेकिन यह स्वभाविक है क्योंकि लेखक जिस पात्र को लेकर पूरा उपन्यास रच रहा है उसके चरित्र के प्रति अतिरिक्त सावधानी बरतना भी उसका दायित्व है. उपन्यास में वैदिक चिंतन और परंपरागत हिन्दू दर्शन का प्रभाव मुखर है. वर्तमान से सामंजस्य और वैज्ञानिक दृष्टिकोण की कमी कहीं कहीं खलती है. राम के चरित्र को मानवीय रूप देकर जन मानस को प्रेरित करने की जगह सभी पात्रों के माध्यम से उन्हें सर्वत्र ईश्वरीय अवतार का ही रूप दिया गया है. सारांशतः उपन्यास, पठनीय और रोचक तो है ही कैकेयी के चरित्र के प्रति भी  जन मानस से पुनर्विचार की मांग करता है.
कैकेयी/सीताराम महर्षि/द्वितीय सं. 2010/मू.200रु./शिवप्रसाद मोहनलाल चैरिटेबल ट्रस्ट, गुवाहाटी, असम

Sunday 6 November 2011


सात आवाज़ें-सात रंग
सात आवाज़ें-सात रंग, ओम प्रकाश चतुर्वेदी ‘पराग’ द्वारा संपादित ग़़ज़ल संग्रह है जिसमें बहुचर्चित ग़ज़लकार ओमप्रकाश यती, कमलेश भट्ट कमल, योगेन्द्र शर्मा, विज्ञान व्रत, ब्रजकिशोर वर्मा शैदी, देवेन्द्र शर्मा इन्द्र एवं सम्पादक ग़ज़लकार ओम प्रकाश चतुर्वेदी पराग की ग़ज़लें रचनाकारों के परिचय व आत्मकथ्य सहित संकलित हैं. 
सहयोगी सं,कलन जहां एक ओर समकालीन रचनाधर्मिता पर प्रकाश डालते हैं, वहीं शोधार्थियों के लिए भी उपयोगी होते हैं, एक साथ एक से अधिक रचनाकारों की रचनायें जहां  एक ओर समकालीन प्रवृत्तियों की उद्घोषणा करती हैं वहीं दूसरी ओर रचनाकारों की मानसिकता को समझने में मददगार सिद्ध होती है यों इसमें संकलित अधिकांश ग़ज़लकार नामचीन हैं और ग़ज़ल से इतर अन्य विधाओं में भी उन्होंने भली भांति हाथ आजमायें हैं.
यह सही है कि हिन्दी उर्दू ग़ज़ल का विवाद अभी थमा नहीं है और उनके अपने अपने पूर्वाग्रह अपनी जगह कायम हैं, फिर भी संपादक का यह कथन रेखांकित करने योग्य है कि ‘हिन्दी में जो ग़ज़लें लिखी जा रही हैं उन्हें किसी भी कसौटी पर परख लिया जाये वह सौ फीसदी खरी उतरेंगी, इस पुस्तक में प्रकाशित सात ग़ज़लकारों की ग़ज़लें मेरे कथन की पुष्टि करेंगी. यह सातों ग़ज़लकार ग़ज़लगोई के फन में माहिर हैं वहीं उनमें से प्रत्येक के अंदाजे बयां मंे एक अलग तरह की विशिष्टता है’’इसीलिए संकलित ग़ज़लकारों के यह शेर ऊपर लिखे गये क्रम में क्रमशः प्रस्तुत हैं-
1 खेल-खिलौने भूल गया सब मेले में
वो दादी का चिमटा लेकर घर आया 
2 विरोध अपना जताने का तरीका पेड़ का भी है
जहां से शाख काटी थी, वहीं से कांेपलें निकलीं 
3 गिड़गिड़ाहट पर तवज्जो कौन देता है भला
आपकी आवाज़ में प्रतिरोध का स्वर था कहां ?
4 बरसों ख़ुद से रोज़ बनी
तब जाकर कुछ बात बनी


उसने ख़ुद को ख़र्च किया 
और बताई आमदनी
5 दहकता गांव है जलते घरों से
मिलेगी कब निज़ात इन मंज़रों से 
6 वो ताज़ा ख़ून पीता आदमी का 
वो पीने का भी पानी छानता है 
7 न कोई देवता, शैतान, न ईश्वर तुम तो
पराग देह के मंदिर में आदमी रखना
निःसंदेह इन ग़ज़लों में अपने समय की आवाज़ भी है और भविष्य के प्रति एक दृष्टिकोण भी संग्रह पठनीय संग्रहणीय है और सम्पादक और प्रकाशक साधुवाद के पात्र हैं.
सात आवाज़ें-सातरंग/सं.ओम प्रकाश चतुर्वेदी‘पराग’/पृ.सं.2011/मूल्य 200 रू/प्रवाल प्रकाशन गाजियाबाद उ.प्र.डॉ.महेन्द्र अग्रवाल


ग्वालियर के गली बाजार मोहल्ले, 
शोध कार्य सदैव श्रमसाध्य होते हैं और इस दिशा में जिज्ञासु प्रवृत्ति के लोग ही पहल करते हैं, ग्वालियर के गली बाजार मोहल्ले, माता प्रसाद शुक्ल की शोधकृति है, किन्तु उसका उद्देश्य किसी विश्वविद्यालय से कोई डिग्री पाना नहीं है. यह उनका अपनी मिट्टी स,े अपनी धरती से वह प्रेम है जो इस कृति के रूप में पुष्पित पल्वित  हुआ है, ग्वालियर ऐतिहासिक दृष्टि से सदैव महत्वपूर्ण नगर रहा है, अनेक राजवंशों का यहां शासन रहा, कुछ वर्णनों में वह बारहवीं शताब्दी तक के तथ्य ढूंढकर लाये हैं यद्यपि इसमें सत्रहवीं शताब्दी के बाद की जानकारियों की बहुलता है
यहां की गलियां, गोठ, गंज, गांव, मोहल्ले, बस्तियां और चौराहे कब कैसे स्थापित या विकसित हुए, कैसे उनका नामकरण हुआ उसका विस्तृत सचित्र विवरण इसमें है, निःसंदेह इस कठिन परिश्रम के लिए और भावी पीढ़ियों को इसे एक ऐतिहासिक दस्तावेज के रूप में सौंपने के लिए माता प्रसाद शुक्ल प्रशंसा और बधाई के पात्र हैं यह कृति ग्वालियर वासियों के लिए तो धरोहर की तरह है ही शोधार्थियों के लिए भी कम महत्व की नहीं है, इसके माध्यम से लेखक ने ऐतिहासिक महत्व की मज़ारों, दरगाहों, मठों, मंदिरों, गढ़ियों, किलों, बावड़ियों, आदि के विवरण के साथ-साथ उनके संरक्षण की आवश्यकता को भी रेखांकित किया है. इस ओर यदि जन सामान्य व शासन द्वारा पर्याप्त ध्यान दिया जाये तो उनका यह प्रयास और अधिक सफल सिद्ध होगा.
ग्वालियर के गली, बाजार, मोहल्ले/माता प्रसाद शुक्ल/पृ.सं.2010/मूल्य 300 रू./सांई प्रकाशन अटल जी वाली गली, ग्वालियर म.प्र.डॉ.महेन्द्र अग्रवाल


दरिया डूब गया
दरिया डूब गया अनमोल शुक्ल अनमोल का पहला ग़ज़ल संग्रह है यद्यपि ग़ज़ल के शौकीन प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से उनकी रचनाओं से पूर्व परिचित हैं, ग़ज़ल संग्रह में उनकी रचना धर्मिता पर वरिष्ठ ग़ज़लकार शकील बिजनोरी, राज गोपाल सिंह, जहीर कुरेशी, कमलेश भट्ट कमल, के अभिमत प्रारंभ में ही उनके क़द का अहसास करा देते हैं. सभी ने उनकी फ़नकारी की ताईद की है. प्रमाण स्वरूप उनके यह शेर देखें-
आसानी से मरता है शैतान कहां
रखता है वह तोते में अब जान कहां
निकट दर्पण के इतना आ गया हूं
मैं अपने बिम्ब से टकरा गया हूं
मेरी किस्मत में लिखा क्यों आपने ऐसा सफ़र
मोम की बैसाखियां और धूप में तपता सफ़र
निःसंदेह भीड़ में भी उनकी अपनी पहचान है क्यांेकि उनके पास शेर कहने का सलीका भी है और नये-नये मौजू तलाशने का हुनर भी. कहीं कहीं उन्होंने जोखिम उठाया है, खास कर गंगा जमुनी भाषा में कुछ शब्दों के साथ जैसे- नम्र, वायरस, त्रिज्या, वृत्त, आदि लेकिन उनका संुदर सोच उनके शेरों को सदैव नयी आभा देता है. जैसे-
हे प्रभु आंधी कोई सारे मुखोटे ले उड़े
जिससे हर इक आदमी फिर आदमी लगने लगे
ईश्वर उनकी यह कामना पूरी करे, संग्रह पठनीय है.
दरिया डूब गया/अनमोल शुक्ल अनमोल/पृ.सं.2009/मू.130रू/अविचल प्रकाशन, विजनौर उ.प्र.BY-MAHENDRA AGRWAL

मुस्लिम कवियों का योगदान.
आलोच्य कृति का शीर्षक है सामाजिक समरसता में मुसलमान हिन्दी कवियों का योगदान. अर्थात वह मुसलिम कवि जो हिन्दी भाषी है या जिन्होंने हिन्दी भाषा में काव्य सृजन किया है, उनके द्वारा हिन्दी मुस्लिम जन समूह में तात्कालिक परिस्थतियों की विषमता के वाबजूद साम्प्रदायिक एकता का प्रयास,उसका प्रभाव व ऐतिहासिक  महत्व को रेखांकित करती हुई कृति में इन कवियों को काल के आधार पर तीन भागों में बांटा है, आदिकालीन या प्रारंभिक, मध्यकालीन एवं आधुनिक काल के मुसलमान हिन्दी कवियों की पृथक-पृथक किन्तु विस्तृत व सार्थक चर्चा उदाहरण सहित रचनाकार ने की है. वर्तमान परिस्थितियों में यह कृति और अधिक प्रासंगिक बन पड़ी है अपने महत्व की दृष्टि से उपयोगी भी. इस तरह की कृतियां और उनमें व्याप्त संदेश सामान्य जन तक भी पहुंचना चाहिए तभी लेखक का श्रम सफल और सार्थक होता है. विषय से सम्बद्ध ज्ञानार्जन की दृष्टि से यह कृति अनुपम है, इसमें इस्लाम और हिन्दू धर्म के उद्भव, विकास और स्वरूप शीर्षक से जो अध्याय संकलित हैं वह आम पाठक के लिए रोचक भी हैं और ज्ञानवर्धक भी. शोधकार्य के विषय से जुड़े हुए अनेक तथ्यों के साथ लेखक की  विवेचनात्मक क्षमता का परिचय देते हुए उनके निष्कर्ष भी अत्यंत सारगर्भित हैं. शोधकार्य   का उनका उद्देश्य भी महत्वपूर्ण है जो राष्ट्रीय चिंता से आकुल होकर उन्हें प्रेरित करता है और वर्तमान विषेले वातावरण में सामाजिक समरसता के लिए ऑक्सीजन उपलब्ध कराने जैसी भूमिका का निर्वहन करता है.  लेखक ने ऐसे अनेक उदाहरण प्रस्तुत किये हैं जहां मुिस्लम कवियों ने रामचरित्र मानस, हनुमान चालीसा आदि रचनाओं के महत्व को समझते हुए उनका उर्दू अनुवाद किया है और उन्हें जन उपयोगी मानकर मुसलमानों तक में उन्हें पहुंचाने का कार्य किया है. सुप्रसिद्ध समालोचक डॉ.परशुराम विरही के यह वक्तत्व इस कृति के संबंध में सनद् की तरह हैं और उनके बाद किसी टिप्पणी की आवश्यकता नहीं रहती.
1- एकता और समरसता की बात की जितनी सरस सम्प्रेषणीयता कवि-कथन मंे होती है उतनी दार्शनिक विवेचक और विज्ञानिक सिद्धांत सूत्र में नहीं होती.
2- शासकों की बर्बरता से पीड़ित जनता में समरसता कौन पैदा करता. बहुसंख्यक समाज की खिन्नता को मुसलमान, संतो और कवियों ने समझा था.
3- आज पूरे विश्व का सामाजिक वातावरण ज़िहादी आतंकवाद से आशंकित है ऐसे समय में इस प्रकार के ग्रंथों की साहित्यिक और सामाजिक उपयोगिता को सहज ही समझा जा सकता है.
सामाजिक समरसता में मुसलमान हिन्दी कवियों का योगदान/डॉ.लखनलाल खरे/पृ.सं.2009/मूल्य 200 रू./रजनी प्रकाशन 5/288 गली नं. 5 पश्चिम कांति नगर दिल्ली    BY-DR.MAHENDRA AGRWAL

Wednesday 2 November 2011

सतरंगी सप्तसिंधु


सतरंगी सप्तसिंधु
संयोग साहित्य के कुशल सम्पादक और वरिष्ठ साहित्कार मुरलीधर पाण्डेय का नाम सहित्य जगत के लिये परिचय का मोहताज नहीं है. सप्त सिन्धु उनकी पांचवी पुस्तक है, जिसमें कविता, गीत, लोक गीत,बालगीत, ग़़ज़ल, दोहे एवं मुक्तक आदि सतरंगी रचनाओं के श्रेष्ठ कवि रूप में वह उपस्थित हुए हैं, इसमें सौ वर्षीया वृद्धा की पीड़ा भी है और आयु की परिभाषा भी. कहीं कही मन की विभिन्न अवस्थाओं का चित्रण हैं. यद्यपि संकलित ग़ज़लें हिन्दी गीतिका की तरह हैं किन्तु कुछ ग़ज़लों में उर्दू लबो लहज़े की झलक भी मिलती है. 
दोहों में आदर्श और उपदेश की प्रधानता है किन्तु व्यंग्य की धार भी अधिकांश दोहे में सर चढ़कर बोलती है. अभिव्यक्ति में नवीनता है- बिन मांगे मत दीजिए अपना कभी सुझाव
बिना भूख पचता नहीं घी का बना पुलाव
नवीनता की आकांक्षा में कवि ने मुक्तकों को भी नये सिरे से गढ़ा है. 
सप्त सिंधु काव्य संग्रह/मुरलीधर पाण्डेय/प्र.सं.मई 2011/मू. 100 रू/संयोग प्रकाशन 9ए चिंतामणि आर.एन.पी.पार्क भईंदर जिला ठाणे महाराष्ट्र